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(६७८) बघेलवंशवर्णन ।। यह सुनि तब मैं अति हर्षीई । राजारामहिं कह्यो बुझाई । है है तुम्हरे दशयें वसा । परमप्रकाशमान यक हंसा । कथिहै सो मुख अनुभव वानी । मोर शब्द गहि है मुखमानी ॥ सोई तुव कुलको अवतंसा । विजक ग्रंथको करी प्रशंसा ।। ताको अर्थ अनूपम करि है । मम आश्रमर्हि आय सुख भरि है ॥ यह सुनि रामभूप शिरनाई । करि प्रशंसा जनन सुनाई ॥ नंदपुराणिक तहँ सुख भीनी । करी दंडवत वंदना कीनी ॥ राजाराम महलमें जाई । रानीसों सब गयो जनाई ॥ दोहा-रानी सुवचन कुर्वैरिसों, किय यह विनय ललाम । श्रीगुरुको लै आइये, महाराज निज धाम ॥ ६० ॥ श्रीकबीर गुरुको मुदित, सादर रामझुवाल ॥ लैआये निज भवनमें, कार बहु विनय, रसाल६१॥ | कवित्त ।। है जहाँ आसन तहाँई श्रीकबीरजीको गुफा बनवायो प्रीतियुत राजारामहै । साज मँगवाय सब चौकाकै कबीर शिष्य राजा अरु रानिहूंको कीन्ह्यो तेहिं ठामहै। औरो सव भूपके समीपी भये शिष्य सुखी पूजा जौन चढ़यों तहां अगणित दामहै । दियों भंडारा श्रीकवीर बोलि साधुनको जय जयरह्यो पूरि बांधवगढ़ धामहै ॥१॥ दोहा-युगल गाँउ अरुगाँउ प्रति, रुपयाएक चढ़ाई ॥ दिय कागज लिखवायकै, रामभूप हर्षाय ॥ ६२ ॥ होय जो हमरे बंशमें, भूपात कोउ उदार ॥ लेय न कबहूँ शपथ तेहि,अर्पन कियो हमार ॥ ६३ ।। श्रीकबीरजी है। प्रसन्न अति । त्रिकालज्ञ पुनि कह्या महामति ॥ औरहु कछु भविष्य मैं भाख । सो तुम सति निन मन गुणिराखो ॥ दशयें. वैश हंसको रूपा । तुमहीं प्रगट होहुगे भूपा ॥ सुवचन कुर्वैरि रानि तुव जोई । सो परिहार भूप घरहोई ॥ तोस तासु होयगो व्याहा । हरि पद रति अति करी उछाहा ॥ ६६ ताके वीरभद्र सुत तेरो । जन्मिदेयगे मोद घनेरो ॥