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बघेलवंशवर्णन । ( ६७७ ) दोहा-सुनत वयन विरसिंह नृप, बोलि ज्योतिषिन काह ॥ सुदिन शोधि गुरु साधु द्विज, अआगे करि सउछाह ५५ चल्यो निसान बजायकर, जायदुर्ग भरि चाय ॥ द्वारपालको देतभो, बहु इनाम बोलवाय ॥५६॥ पूजा कर सव सुरनकी, अति आदर युत भूप ॥ विप्रन साधुनको कियो, निवता महाअनूप ॥ ५७ ॥ बाजन बा ने विविध प्रकारा । तो छूटतभई अपारा ॥ सुदिन शोधिसिंहासन पाहीं । विरसिंह भूप बैठ सुखमाहीं । जमीदार भूमियन बोलाई । बिदा किया है तिन्हैं बिदाई ।। रैयत साहु महाजन नेते । आयभेंट दिय नति करि तेते ॥ शिरोपाउदै तिन सब काहीं । खातिर करि किय विदा तहाँहां ॥ राज्य करत 'बहु वर्ष बिताये । वीरभानु सुतयुत अति चाये ॥ नृप विरसिंहदेव यक वासर । कीन्ह्या मन विचार यह सुखकर ॥ सुतहिं समीप राज्य यह सिगरी । भजन करीं चलि नहिं अब विगरी ॥ दोहा-बोलि साधु गुरुके सपदि, सुदिन शोधि नरराय ॥ वीरभानुको शुभ दिवस, दिय गद्दी बैठाय ॥ ९८॥ आप भजन करिवेके हेतू । मणिदै रानी - सहित सचेतू ॥ विरसिंहदेव प्रागमें आई । वास कियो तिरवेणि नहाई ॥ दिनपति ब्राह्मण साधुन काहीं । भोजन करवावै सुखमाहीं ॥ आनंद मग्न रहै वसुयामा । सुमिरण करत जानकी रामा ॥ बीरभानु बांधवगढ़में इत । पैठि राज्य आसन मन प्रमुदित ।। राज्य कियो बहु दिवस समाजा । तासु सुवन तुमराज विराजा ॥ करहु निशंक राज्य सब काला । यह सुनि राजाराम निहाला ॥ बहु विधि स्तुति करिकै मेरी । मोसों विनती करी बहुतेरी ! दोहा-कह कबीर साहेब गुरू, तुम हमरे कुलकेर ।। शिष्य कीजिये महि प्रभु, अब न कीजिये देर ॥५९ ॥