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(६६६ ) बघेलवंशवर्णन । कियो शङ्क नहि कोष न देशू । नहिं चाकर यह बड़ो अंदेशू । चलिंदै किमि जग नाम हमारो । नहिं कबीर वर मृषा विचारो ॥ करत करत यहि भांति विचारा । होतभयो जबही भिनसारा ॥ दाहा-सपदि भूप जयसिद्ध तब, जाय जनकके पास ॥ विनय कियो करजोरिकै, मोहिं यह परमहुलास२४ करि महि अटन तीर्थ सब करहूँ । परम प्रमोद हिये महँ भरहूँ ॥ कैरै न धर्म धेरै धन जोरी । क्षत्री है करतो धन चोरी ॥ तेहि नृप तेजअंश घटिजाई । ताते धर्म केरै मनलाई ॥ करै नीति रंण पीठि न देई । सो नृप अनुपम यश महि लेई ॥ यह सुनि सब बघेल सुख पायो । पितु प्रसन्न है वचन सुनायो । जाहु हमारे पितुके पासा । कहौ करै जस हुकुम प्रकासा ॥ यह सुर्निकै नयसिद्ध भुवाला । जाय पितामह निकट उताला ॥ शीश नवाय उभय कर जोरी । विनय कियो यह इच्छा मोरी ॥ दोहा-जात अद्द तीरथ करन, दीजै नाथ रजाय ॥ तब सुळंक नृप पौत्रस, कह्यो गोद बैठाय ॥ २५॥ कौन कलेश परयो तुमकाहीं । जो निज राज्य रहतही नाहीं ॥ यह तुब सिगरी राज्य ललामा । का परदेश जानको कामा ॥ सुनि जयसिद्ध कही तब बाता । देहु राज्य दोउ पुत्रन ताता ॥ काम न मम तुब राज्यहि तेरे । करिये विदा यही मन मेरे ॥ तिहरो यश जगमें अति होई । नहिं निंदा कार है जन कोई ॥ तब कबीर वरदान प्रभाउ । गुणि सुलङ्क नृप भार अति चाऊ ॥ युगल उतंग मतंग निवेरे । तीस तुरंग तबेले केरे ॥ तिनको नीकी भांति सजाई । द्रव्य ऊन्ट बै तुरत भराई ॥ दोहा-वीर महारणधीर जे, काल सरिस सरदार ॥ तिनको तिन सँग करत भै, औरहु चमू अपार २६ सुदिन शोधि जयसिद्ध नरेशा । पितु मातहिं किय खातिर वेशा ॥ पुनि रानी अतिशय विलखानी । महूँ संग चलिहौं कह वानी ॥