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(६३४) बीजक कबीरदास । हंसजीव बसै है सो या जीवठौरमें न लग्यो कहे साहबके पास न गयो वहीमनके ओटमें रहिगयो अर्थात् मनरूपी सरोवरैमें रहिगयो ॥ २९७ ।। मधुरबचन औषधी, कटुकवचनहैं तीर ।। श्रवणद्वार है संचरें, शालें सकल शरीर ॥ २९८॥ कटुकबचन तीरहैं औ अधुरबचन औषधे ते ये दोऊ श्रवण दाह्रकै सधैरै हैं कहे जाईंहैं औसिगरे शरीरमें शाकै हैं कहे व्याप्त हैजायहैं जो कोई मीठ बचन कह्यौ तौ वासों रागभयो औ जो कोई कटुकबचन कह्यो तौ वामें देषभयो । मधुरबचन ते जहां राग कियो जहांमन लग्यो तैहै जन्मतभयो औ कटुकच्चन सुनि कोप कार बधादिक कियो तेहिते आयु हानिभई मरतभयो याते मधुर बचन कटुबचन दोऊ बरोबर शालै हैं ॥ २९८ ॥ ई जगतो जहडेगया, भया योग ना भोग ।। तिलतिलझारिकबीरलिय, तिलठीझारैलो ॥२९९ ॥ या जगतो जहडेगयो कहे द्वैगया काहेते किं न याको योगही सिद्ध भयो न भोगही सिद्धभयो कैसउ हजारन वर्षलों योगकै जिये महाप्रलय भररहे आखिर नाशही हैजाइहै जो धर्मकरि दिविका भोगकियो तौ जब पुण्यक्षीण द्वैलाई। तबतौ मृत्युही लोकको आवै है याते न भोग सिद्धभयो न योग सिद्धभयो सो तिलजो है रसरूपाभक्ति साहबकी ताको तो श्रीकबीरजी कहै हैं कि मैं झारिलियो तिलेठी जो है नानाउपासना तिनकी और लोग झारै हैं नामकरै हैं जामें रस नहीं है ॥ २९९ ॥ ढाढसदेखुमरजीवको, धसिके पैठिपताल ॥ जीवअटकमानैनहीं, गहिलैनिकयो लाल ॥ ३०० ॥ मरजीवते कहावै हैं जैसमुदमें पैठिरत्न निकारै हैं ताको ढाढस देखो टाटस करिकै पातालमें पैठे हैं जीवको अटक नहीं मानै हैं समुदते लालगहि लैवै हैं वैसे जीव तैहूं मनादिकनको त्यागिदे मरिबको नडराय विश्वासकारकै साहब रसरूपसागरमें पैदु ॥ ३०० ॥