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(६२२ ) बीजक कबीरदास । हमजान्यो कुलहंसहौ, ताते कीन्हो संग ॥ जो जनत्यों बकवरणहौ, छुवन न देत्यॉअंग ॥२५६॥ कबीरजीक है हैं कि हमतो तुमको हंसके कुलमें जानते रहे हैं ताते तुमको उपदेश किया तुम्हारो सङ्ग कियो है जो तुमको बकै के बर्ण जानते कि हंस नहींहो तो एक अंग छुवन न देत्यों अर्थात् उपदेशकी बातहू न चलावतो उपः । देश को कौन कहै ॥ २५६ ॥ गुणिया तो गुणको गहै, निगुर्ण गुणहि घिनाय ॥ वैलहि दीजै जायफर, क्या बूझै क्या खाय ॥२५७॥ गुणियाकहे जोसगुणहोय है सो गुणको गहै है सत रज तमको जो धारण करै है सो अशुद्धई रहै है ते मायाते नहीं छूटै हैं औजो निर्गुण उपासकहोइ है सो सगुणको घिनाय है सो निर्गुणौवाले सगुणवाले साहबके गुणको कहाजानैं वेतो सगुण निर्गुणके परे हैं मायाकृत गुणते रहित हैं दिव्यगुण सहित हैं। काहेते कहै हैं कि बैलके आगे जो जायफर धरिदीजिये तो कहा बूझै क्याखाये ऐसे वे साहबके गुणको कहाजानैं ॥ २५७ ।। अहिरहु तजि खसमहु तज्यो, विना दाँतको ठोर ॥ मुक्तिपरी विललातिहै, वृन्दावनकी खोर॥ २५८ ॥ बिनादाँतको ठोरजो है बूढा गाय बैल ताको अहिरौ चराइबो छॉड़िदेइ है। और खसम जो है बैलको मालिक सोऊ छोड़ि देइ है अर्थात् बुढाजानिकै कि मेरे कामको नहीं है तब वह बैल बृन्दाबनकी खोरि विलळानलग्यो ऐसे जब मनरूपीदात उखारिडारयो तब अज्ञानअहिर याको छोड़िदियो औ याको खुसम जो है माया सबलित ब्रह्म सो जब मन न रहिगयो तब याहू छांडिदियो तब आपहीआप मुक्त द्वै गयो सर्वत्र साहबहीको देखन लग्यो जैसे वृन्दावनमें डारमें पातमें कृष्णदेखिपरै हैं मुक्ति परीधिललाइहै काको मुक्तकरै ऐसे यहू सर्वत्र साहबेको देखनेलग्यो मुक्तही वैगयो मुक्तिकाको मुक्तकैरै तापमाण ॥ * सबनदियाँ गङ्गाभई, सब शिल्ल शालिग्राम ॥ सकल बन तुलसी भयो, चीन्ह्यौ आत्माराम ॥ २५८ ॥