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आदिमंगल।
अर्थ-“प्रथम दुर्गद कहैं हैं दुर्गकहावै कि जो कोई पुण्यकरैहै ताको स्वर्गदै पुण्यभोग करावैहै औ जे पापकैरैहै तिनको नरकनमें पापको भुगताइकै किलारूपी जो है शरीर सो जीवकोदेय है याते दुर्गद् यम एक १ औ दूसर चित्रगुप्त ने कर्मनके लेखाकरैहै२तीसर मलिनमन ३ औ चौथ मोह४औपांची कामं कालकी सेनाका मकरन्दीकहे बसंतते सहित ५ औछठअंधअचेत जोहै चित्त सो ६ औ सातौंमत्यु भई जोखेतको जीतैहै कहैसबको मारैहै ७ औ आठोंसूरकहे। अंधा अर्थात् अशुभकर्मकी रेखा ८ औ नवों सिंहकहे समर्थ शुभकर्मकी रेखा ९ औ दशौं यमभावी जो कालको पेखाहै कहे जे कर्म होनहार है सो काल कारकै होइहै अर्थात् कालकी अपेक्षा राखेहै १० औ ग्यारह अघकहे पापरूपनिद्रा ११ औबारहौंअंधको देनवारो क्रोध जामें सबजीव जंतु बँधे १२तेरह प्रबल परमेश्वर रमाबैकुण्ठवासी विष्णु जेशुभाशुभ फलके दाताहैं १३ औचौदह धर्मरान यज्ञपुरुष १४ ये चौदह यमनिरंजन(जो आगे कहि आयेहैं विरजापार विष्णु)की सत्ताविना ये सब जड़है कार्य नहीं कर सके हैं वोई लिखनी कागद देहहैं ॥ १८ ॥
दोहा-आषु आपुसुखसव रमै, एकअण्डके माहिं ॥ उत्पतिपरलयदुखसुख, फिरिआवैफिरिजाहिं॥१६॥
एक अंडजोहै ब्रह्मांड तौनेमें जीव अपने अपने सुखकेलिये सबरमैहैं कोई मानैहै कि हम जीवात्माहैं, कोई मनैहै कि हम ब्रह्महै, कोई मानैहै कि हम ईश्वर हैं, कोई माने है कि हम देवताहैं,कोई मानेंहै कि हम सेवकहैं,कोई मानेहै कि शरीरभर सबकुछ है, आगेकछू नहीं है सो विषयही सुख करियेइ, कोई यज्ञादिक कारकै स्वर्गको सुखचाहै है, औकोई यशचाहै है कि अपने स्वस्वरूपको प्राप्तहोयँ तौ हमको अक्षयसुखहोय । सोनिन जिन मतन कारकै जौनजौन स्वस्वरूपई मनैहै। तेइनके स्वस्वरूप नहीं है ये अच्छे सुख काहेको पावै तेहिते इनके जनम मरण न छूटत भये,उत्पत्ति प्रलयमें दुःख सुखको प्राप्तहोई है औफिरि अवै है फिरि जाइँहैं। ककार चकार आदिक ने बर्ण हैं तिनमें बुन्दार्थ चंद्रदेइ तब सानुनासिक ताकी एकमात्रा रामनाममें औरहै सोयाके अर्थ हंसस्वरूपहै सो साहबदेइहै सो नासमु झो प्राकृतनानाजीवरूप आपनेको मानिकै नानामतनमें लागि संसारीद्वैगये औ