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(६१२) बीजक कबीरदास । मच्छ होय ना बाचिहो, ढीमरतेरे काल ॥ जेहि जेहि डावर तुम फिरौ, तहँ तहँ मेलै जाल२२६॥ हे जीव ! जो तुम मच्छ जहै मायाको अनुभव ब्रह्म सोई वैकै जो बाचा- चाहौ तौ न बाचौगे तेरो फेंदावनवारो ढीमर जो है मन सोई कालहै सो तुमको फॅदायकै कालके घर पहुँचाय देइगो अर्थात् जो ज्ञानकर ब्रह्महू लैजाउगे तबहू माया धरिही है आवैगी अथवा समाधि करिकै प्राणको ब्रह्मांड में पठायकै ज्योति में लीन होउगे तबहू माया धरिलै आवैगी तेहिले जौने नौने मत जे डावर तामें फिरीगे कहे मतमें लागौगे तहाँतहाँ या मनरूपी ढीमर जाल फेंकिकै तुमको धरिही लै आवैगे। तेहिते मन वचन परे जो भक्तियोग तौनेके जानौ तब वह कालते बचौगे सो भक्तिके गुण पाछे कहिआये हैं औ भक्तिये • मन बचनके परै है तामें प्रमाण कबीरजी शब्दावली ग्रन्थका ॥३॥ शब्द । । अबधू ऐसा योग बिचारा । जो अक्षरहू सों है न्यारा ।। जौन पवन तुम गङ्ग चढ़ावो करो गुफामें बासः ।। सोते पवन गगन जब बिनशै तब कह योग तमासा ।। जवहीं विनशै इंगलापिंगला बिनशै सुषुमन नारः । जो उनमुनि सो नाड़ी लागरी सो कह रहै तुम्हारी ॥ मेरु दण्डमें डारि दुलैचा योग आसन ल्यायो । मेरु दण्डकी खाक उठेगी कच्चे योग कमाया ।। सोतो ज्योतिगगनमें दरशै पानीमें ज्यों तारा । बिनशी नीरनसों जब तारा निसरौगे केहि द्वारा ।। बैतलाग बैराग कठिन है अटके मुनि जन योग । अक्षरलौं सब खबर बतावै जहँलौं मुक्ति वियोगी ।। सोपद कह्या कहे सो न्यारा सत्य असत्य निबेरा । कहै कबीरताहि लखुयोग; बहुीर न करिये फेरा ।। २२६ }