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(६०६) बीजक कबीरदास । बेलि कुढंगी फलबुरो, फुलवा कुबुधि वसाय ।। मूल विनाशी तूमरी, सरोपात करुआय ॥२१४॥ यह मायारूपी जो बेलि है सो कुटंगी है काहेते कि याको दुःख रूपी फल बुरो है औ कुबुधि जो है सोई फूलहें वाकी नाना वासना जें हैं सोई बास बसायॆहै। से यह मूल विनाशी है अर्थात् मिथ्याहै याको मूल नहीं है अपहीते उत्पत्ति भई है औ जेते भर मायिक पदार्थ हैं ते पातहैं तिनमें सबमें करुआई है अर्थात् सॉच सुख नहीं हैं ।। २.१४ ॥ पानीते अति पातला, धूवाँते अति झीन ॥ पवनहुँते अति ऊतला, दोस्त कबीरा कीन ॥२१८॥ पानिहुँते पातर धूम ते झीन औ पबनते चंचल ऐसो जो छुद्रमन ताको कवीराजे जीव ते दोस्त किये हैं सो चौरासी लक्षयोनिमें डारदियो ॥२१५॥ सतगुरुबचनसुनौहोसन्तौ, मतिलीजेशिरभार ॥ होहजुर ठाढ़ाकहों, अब समर संभार ।। २१६३।। साहब कहु हैं सतगुरु जो कवीर तिनको वचन सुनिकै हे संतो आपनेमें मनको भारा मति लेहु तुमलों समर & रह्यो है सो मदको जीति लेहु ६ हजूरमें कहीं हौं अर्थात् दूर नहींहो जो तुम सनक जीतौ तौ मैं अपनायलेहुं २१६ ये कहआई बेलरी, हो करुवा फलतेोर ।। सिंधुना जब पाइये, बेलबिछोहा होर ॥ २१७ }} हे कल्पनारूपवेलि! तेरा फल बहुतकडुवाहै जो कल्पना करै है सो नरकहीको जाय। सो तव सिंधुनाम वैगो जौने जगत्मुख अर्थवेद शास्त्रमाया ब्रह्मजीव सब जगभरोहै तौनेको जब पावैगो तब साहबमुख अर्थ जानिकै साहब रत्नको पावैगो हब कल्पना बेलि को बिछोह द्वै जायगे ॥ २१७ ॥ | परदे पानी ढारिया, संतौ करह विचार ॥ शरमी शरमा पचि मुआ, काल घसीटन हार॥२१८॥