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(६०२) बीजक कबीरदास । सांच द्वै जायदै तामें प्रमाण ॥ श्रीकबरनीकी साखीजाक सांची सुरति है, सांची साखी खेल ॥ आठ पहर चौंसठ घरी, है साहब सो मेल ॥ १९८ ।। जहिया किरतिम ना हता, धरती हतो न नीर ॥ उत्पति परलय नाहती, तवक्की ही कबीर ३ ३९९॥ कबीरजी कहै हैं कि जब येरहवै नहीं भये तबकी कहै हैं । १९९ ।। जहाँबालअक्षरनहिंआया,जाँअक्षरतहमनहिंढाया ॥ बोलअबोलएकहैसोई, जिनयालखासोबिरलाहोई२०० जहां बोल जो शब्दभया तहां अक्षर आपही जायेहै जब अक्षर भयो तब मन दृढ़ावही केरै है कहे मनकी उत्पत्ति होतही है सो तब तो आकाशही नहीं रह्यो शब्द कहते निकसा सो प्रथम जो बाजी रामनाम लैके उचरी सो अब लहै कहे अनिर्वचन य है लोई कहे तौने जो है रामनाम सोई बोहैं कहे वहीते सब अक्षर निकले हैं सो वही अबोल कहे अनिर्वचनीय है सो यह बात कई विरल जानै है काहे ते कि जब कुछ नहीं रहे तब एक साहबह रहे है तिनहीं ते सवक उत्पात्त भई है वहतो सबको मूलहै वाको कोई कैले कहिसकै जब यह साहब को है जाय और आशाछोड़ देइ तब साहबही प्रसन्न वैकै अब बनाय लेइहैं तामें प्रमाण साहबकी उदिः । “ज से जो महीं जनऊ। बांह धकार लोकै पृहुंचाऊ॥यही प्रतीति मानु हैं मेरी । यह सुयुक्ति काहू नहिं हेरी 3 सत्य कही तो सो मै टेरी । भवसागरकी टूटै बेरी ॥ २०० ।। जौ लों तारा जग सगै, तो लौं उगै न सूर है तौल जिय जग कर्म बश, जौलों ज्ञान न पूर ६३२०३॥ जौलौं सूर्य नहीं उगै हैं तौ लगि तारा जग मगायहैं ऐसे जौल साहक पूरो ज्ञान नहीं होयहै तै लौं जीव नाना कर्मनकै बश है नाना मतनों लागै है। . जवजीव सः हबका जान्यो औ साहब को लैगयो तब साहबै अपनो ज्ञान देय है। कर्म छुटि जाय है ॥ २०१॥