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{५९४) बीजक कबीरदास । | जैसे ऊसर में बोवै घन बहुतौ बरसैं परन्तु नामै नहीं है तैसे निराकार धोखामेलग्यो फलकछु न हाथलग्यो वातो कुछ बस्तु ही नहीं है अनरुचेको नेह है अर्थ थावड़ी भीतिकियो वातोप्रीति ही नहीं करै ॥ १७६ ।। ॐ ॐ सब जगतको, गोको रोवै न कोई ॥ ओक । २ , हे शब्द् विवेकी होय ।। ३७७ ।। साहब कहे हैं कि मैं सब जगत्पर दया करिकै दोऊँ कि मेरे अंश जीवमाका भूलिगयो ताते जगत् में जनन मरणरूपी दुःखसहै है औ जीवमोको नहीं रोवै है कि हम अपने मालिकको भूलिगये नाना मालिकं मानि नाना दुःख पावै हैं सो मोके सो जन रोवै है जो शब्द जो रामनाम ताको विश्हो य किं ९कारके समीप मकार शोभित होइहै मैं साहबको हौं । १७७ ॥ हव स्वाहव सव कहें, भोहि अंदेशा और ॥ हवस् परिचय नहीं, वैठे केहि ठौर ॥ १७८ ।। | कबीरजी कैसे हैं कि साहब साहब तो सब जीव कहै हैं अर्थात् आपने आपने इष्टदेवताको सबते परे है हैं कि येई के मालिकहैं तो येतो रूब एक एक मालिक बनाये हैं पै को और अन्देशा है कि जौन रामनाम काहब बताकै है तौने नामको जादि साहबते परिचयत करिबै न किये ये कौने और बैठेंगे के पास जायँगे अर्थात् जनन मरण न छूटेगे ।। १७४ | जिव विज जिव वा नहीं, जिवका जीव अधार हैं। छ कुरि हालिये, यडित कर विचार ।१७९।। या जीव बिन जीव हे सतगुरु बिना नहीं बाचै है जीवो व जो सतगुहै सोई आधार है सो जाइपर दया करि अर्थात् सतगुरुके शरण है जीव उद्धार करो हे पंडित ! तुम बिचारकर देखो तो बिना सतगुरु संसार पार न होउगे ॥ १७९ ॥ | हसतो सबहीकी कही, मोक्को कोई न जान । तबभी अच्छा अच्छा अबभी,युग युग होहुँनआन१८०