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साखी । (९८९) चुप चैकै बैठि रहे सो हम पूछे हैं कि तुम कौनके भरोसे बैठि रहे साहबको तौ जानि बोई न कियो जब उत्पत्ति भई तब ब्रह्मत माया तुमको धरिलै आई औ पुण्यक्षीण भई तब स्वग्गदिकनते उतर आये औ जब समाधि छूटी तब नीव उतरि आयो पुनि जसके तस द्वैगये औ आपनेहीं को मालिक मान्यो त जब शरीर छूटयो तब यम खूब लूटयो जैसे मेढ़ाको कसाई ठूटे हैं तैसे बिना रक्षक कौन बचावै ॥ १६३ ॥ समुझि बूझि दृढ़ वैरहे, बल ताज निर्बल हो । कह कबीर ता संतको, पला न पकरै कोय ॥ १६४॥ सर्वत्र साहबको समझिकै औ साहब को रूपबझिकै कि या भोतिको है जड़वत है रहे कि जो करै है सो साहब करै है ऐसे साहब को जो जाने है। ताके बहुत सामर्थ्य है जायेहै जो चाहै सो करिलेइ तौने अपने बलको छपाय कै आपको निब्र्बलै मानै है कि हम कहा केरै हैं जौन काम करै है तैौन साहिबै करै है वे समर्थ हैं सो श्री कबीरजी कहै हैं कि ऐसे संतको पला कोई नहीं पकरै है कहे बाधा कोई नहीं करिसकै है सब साहिबै करै हैं तामें प्रमाण कबीरजीके ज्ञान संबोधनकी साखी ॥ “पाप पुण्य फल दोय, सबै समयँ समरथै ।। निज मन शक्ति न होय,मनसा बाचा कर्मणा ॥ १६४ ॥ हीरा वही सराहिये, सहै घननकी चेट॥ कपट कुरंगी मानवा, परखत निकसा खोट ॥१६॥ हीरा जो है साहबका ज्ञान सोई सराहा जाय॑है जो घन चोट सहै कहे मानामत करिकैकोई बादीखंडन न करिसकै औमानुष ने कपटकुरंगी कहे हरिणी है रहे हैं अर्थात् चंचल है रहे हैं सो जब घनकी चोंटलगी कहे गुरुवालोग आपनोमत समुझायो तब हृदय फूटिगयो साहबको ज्ञान तो जानो न है तामेप्रमाण कंबीरपरिचंयकी साखी ।