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(५८८) बीजक कबीरदास । बहुत घर भये न गृहस्थीमें बन्यो न बैराग्यमें बन्यो तामें प्रमाण चौरासी अङ्गकी साखी ॥
- घरहु ताजनि तौ अस्थल बाँधिनि अस्थल तजिन तैौ फेरी ।। | फेरी तजिनि तौ चेला मूड़िनि यहि बिधि माया घरी ।। १६० ॥ सेमर सुवना वोग तजु, घनी बिगुर्चन पाँख ॥ ऐसा सेमर जो सेवे, हृया नाहीं आंख ॥ १६१॥ हे सुवा जीव संसार रूप सेमर को तें छोड़िदे हैं तो पक्षी है तेरे मेरे पास आवनको पक्ष है कहे तेरे स्वरूपमें मेरे पास आवनको ज्ञान बनो है जो संसारी है जायगो माया ब्रह्म में लगैगो तौ मेरे पास आवनेको तेरे पखना बिगुर्चन है जायेगे कहे घुवा ऐसो चथि डारेंगे नाम नाना ज्ञानमें लगाय देईंगे वाज्ञान न रहि जायगो सो ऐसे संसाररूपी सेमरको सेवै है जाके हृदयमें ओखी नहीं हैं। मेरो ज्ञान नहीं है ।। १६१ ॥
सेमर सुवना सेइये, दुइ ढेढीकी आश ॥ ढेढी फुटी चटाक है, सुवना चले निराश ॥ १६२॥ हे सुवना ! जीव संसार सेमरकी दुइ ठेटीकी आश सँवै है सेमरको दुइ डेढी • कौन हैं एक फूलकी है एक फलकी है औ या संसारमें एक तौ संसारी सुख है एक परलोक सुख है सो, सेमरमें रसकी चाह कियो जब चोंच चहोरयो तब टेढी चटाकदै फूटिगई घुवा निकस्योसुवा निराश बैंकै चले गये रसकी प्राप्ति न भई तैसे तै संसारमें परचा जनन मरण छुटावे के वास्ते धोखा ब्रह्मम लाग्यो परन्तु जनन मरण न छूट्यो । १६२ ।। लोग भरोसे कौनके, जग बैठि रहे अरगाय ॥ ऐसे जियरै यम लुटे, जस मेट्टै लुटै कसाय ॥ १६३॥ अरे लोगौ यहि संसार में कौनके भरोसे अरगायकै कहे चुपाय के बैठि रहे। हौ ज्ञान करिकै कि मैहीं ब्रह्महौं अथवा या मानिकै कि मैहीं जीवका मालिक हैं अथवा योग करिकै कुंडलिनी के साथ प्राणको चढ़ायकै ज्ये:तिमें मिलायकै औ