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(५८६ ) बीजक कबीरदास । कोई न समझत भयो वेदको अर्थ औरई में लगाये दियो सब शब्द को सार राम नाम न जाने सब नरकको चलेगये तामें प्रमाण ॥ * नाम लिया सो सब किया, वेद शास्त्रको भेद ॥ बिनानाम नरकै गये,पढ़ि पढ़ि चारौ वेद ॥ १५३॥ गरुके भेला जिव डरै, काया छी जन हार ॥ कुमति कमाई मन बसै, लागु जुवाकी लार ॥१४॥ कबीरजी कॅहै हैं कि गुरुके भेलेमें निउ डरै है वहगुरुकी भेली कैसी है कि काया जे हैं पांचौ शरीर तिनको छीजनकहे छोड़ायदेन वारी है सो ये संसारी जीवनके मनमें कुमतिकी कमाई लगा है ताते नुवाकी लार मानुष शरीर में लागहै न कर्म करतबन्यो तौ नरकगयो कर्म करत बन्यो तौ स्वर्गगये कर्म छूटनको उपाय नहीं करै हैं लारसंगको कहै हैं पश्चिमका बोली है ॥ १५४ ॥ तन संशय मन सोनहा, काल अहेरी नित्त ॥ एकै डॉग वसेरवा, कुशल पुछी का मित्त ॥ १५ ॥ साहब कहै हैं संशय जो मन सोई तनमें सोनहाहै जीबन को शिकारखेले है औ एक यह काल अहेरी है अर्थात् जब कालमारै है तब मनकी सुरति जहां मरतमें जायहै तहां आत्मा जात रहै है तैनै शरीर धारण करै है सो मन सोनहा काल अहेरी जीव सावज ये तीनों एकैडांग जो शरीर तामें बसै हैं सो हे मित्र तुमतौ हमारे सखाही मूलकै यहडॉग जो शरीर तामें कहाँ बसह चारौ शरीरन का छोड़ि हंसशरीरमें बैठि मेरे पास आवो ॥ १५५ ॥ शाहु चोर चीन्है नहीं, अंधा मतिका हीन ॥ पारिख बिना विनाशहै, करि विचार हो भीन॥१६॥ हे अंधा ! हेज्ञाननयनकोहीन तो शाहुरह्यो है चोरजौ है मन ताको तें न चीन्हें ताते तैहूं चोर द्वैगये सो बिचार न कियो कि पारिख बिना बिनाशहै सो पारि खतो करु तँतो चिहै औ यह मन जड़हैं तेरो वाको साथ नहीं बनिपरै है सों जैसे तें अणुचिहै तैसें साहब विभुचिव चितचितकों साथ होइहै सो बिचारकरि यहि मनसे भिन्नदै मेरे पास आउ ॥ १५६ ॥