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साखी । (९८१) कहूंसांझ होइ है कहूं सकार होइहै अर्थात कहूँ मरिजायते कबहूँ उत्पत्ति होइहै औ बाठकहावै बरेठ सो मनमायामें मिलो जो आत्मा सो बरेठ होइगयो बरेठमें तीनलहर होय यामें त्रिगुणात्मिका माया बरिगई है से एककैतिपुण्यैकी गैलहै जप यज्ञ दानते बँचिकै स्वर्गको लैजाय औ एककैति पापकी गैलहै कामक्रोधादिकते बँचिकै नरकमें डारिदेई हैं जब बरेठ टूटिजायहै तब ख्याल गुलदैजाय है अर्थात मुक्ति है जाय है ॥ १३६ ॥ वड़े ते गयो वड़ापनो, रोम रोम हंकार ॥ सतगुरुकी परिचय बिना, चारयो बर्ण चमा॥१३॥ सबते बड़े को हैं साधु जे संसारको त्याग कीन्हे हैं तिनमें और दोषतो हईनहीं हैं काहेते कि संसारको छोडे हैं परन्तु ये चित्ञचित् रूप साहबको नहीं देखै हैं सर्वत्र ते आपने बड़ापनहीं में गये कि हमारी बराबरीको साधु कोई नहीं है या अहङ्कार रोमरोम बेधि गयो सो सतगुरुतो पायाइ नहीं जो रामनामको बतायदेइ नाते साहब याकी रक्षा करें सो साहबके जाननवारे जेसाधु तिनके विना परिचय चारउ बर्ण चमारके तुल्य ॥ १३७ ॥ मायाकी झक जग जरै, कनक कामिनी लागि । कह कबीर कस बाचिहौ, रुई लपेटी आगि ॥ १३८॥ झकवाकोकहै हैं कि जैसे या कहै हैं कि भूतकी झकलगी है सो कनक कामिनी में लगि मायाकी झकमें बैकलायकै जरै है सो श्री कबीरजी कै है हैं कि कनक कामिनीरूप रुई में लपटिकै बिषय आगिसेवन करौ हैं। सोकैसे बाचिहौ। अर्थात् जारही जायगो ॥ १३८ ॥ माया जग साँपिनि भई, बिष लै बैठी बाट ॥ । सब जगे फैदे फंदिया, गया कबीरा काट॥ १३९ ॥ संसारमें माया सँपिनिभई है सो बिषलैकै संसार की जे हैं सबराहै तन | धन कम्र्म तिनमें बैठी है सो सम्पूर्ण जग वाके फंदे में फंदिगंयो जोई कबीर कहे जीव वे राहनमें चलै है सोई काटा जाय है अथवा कबीरजी कहै हैं कि