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( ९७०) बीजक कबीरदास । मानुष वैकै ना मुवा, मुवा सो डाँगर ढोर ॥ एक जीव ठौर नहिं लाग्यो, भयो सो हाथी घोर ३०८॥ जो कोई साहबके पास पहुँचै सोई मानुषहै अर्थात् साहब द्विभुजहैं यह द्विभुज ढुकै साहबके पास जाइहै औ कबहूँ मरे नहीं है सो साहबके जाननवा नहीं मरें या पीछे लिख आये हैं औ जे साहबको नहीं जानै हैं तेई मेरै हैं ते वे डाँगर दोरहैं ते मानुष नहीं हैं अर्थात् पशुहैं एक ठौर में नहीं लागैहैं कहे साहबके पास नहीं पहुँचै हैं हाथी घोर इत्यादिक नाना योनिमें भटकै हैं ॥१०८॥ मानुष तें वड़ पापिया, अक्षर गुरुहि न मानि ।। बार बार वन कूकुही, गर्भ धरे चौखानि ॥ १०९॥ हेमानुष ! तेंतो श्रीरामचन्द्रको अंशहै तेरो स्वरूप मानुष को है सो रौं बड़ो पापी द्वैगयो काहे ते कि साहब तोको बारबार गोहरायोकि तें मेरो है मेरे पास आउ सो उनके कहे अक्षर न मान्यों आज्ञा भंगकियो तौने पापते बारबार जो बनकी कुकुही कहे मुर्गी तिनके कैसोगर्भ चारिउ खानिके जीवनमें परिवारकेपालन पोषणमें लागिकै पुनि पुनि जन्मधरत भयो नानादुःख सहत भयो इहाँ मुर्गी याते कह्योहै कि बच्चा बहुतहोयहैं ॥ १०९ ॥ मनुष बिचारा क्या करै, कहे न खुले कपाट ॥ श्वान चौक बैठायके, पुनि पुनि ऐपन चाट ॥११०॥ वेद शास्त्र पुराण इनके कहे जो कपाटनहीं खुले हैं अर्थात् ज्ञाननहीं होयहै तौ मानुष बिचारा क्याकैरै प्रथम साहबको कह्यो नहीं मान्यो याते मानुष पशुवत् हैगयो अज्ञान घेरे है सो जो कुकुर कुकुरिया को बिवाहकरै चौकमें बैठाइये तौ पुनि पुनि ऐपनै चाटै हैं तैसे जीवनको पशुवत् ज्ञान द्वैगयो है फेरि फेरि वही बिषयमें लागै हैं साहबकी ओर नहीं लागै हैं ॥ ११० ॥ मनुष बिचारा क्याकरे, जाके शून्य शरीर ॥ जो जिउ झाँकि न ऊपजै, काहि पुकार कबीर॥१११॥