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(९६६) बीजक कबीरदास । को जान्यो उनके शरीरको जब चाहे तब काल खाये उनको पीड़ा नहीं होय है उनको साहेबै सर्वत्र देखि परै है साहबकी प्राप्तिही बनी रहै है ॥९,८॥ करक करेजे गड़ि रही, वचन वृक्षकी फांस ॥ निकसाये निकसै नहीं, रही सो काहू गाँस ॥ ९९ ॥ विरह रूप कहे, सब जीवको साहब की अप्राप्ति रुप जो भुवंगम है करककहे पीड़ा गड़िरही है कहे गुरुवनके बैन बृक्षकी फांसको लगोद छोलिकै काठ के बाण बनावै है ताकी फाँस अथवा बृक्षते शरइव आयगई ताकी फाँस करेजे में गड़िरही है सो निकासते नहीं निकसै है अर्थात् जिनको गुरुवालोग धोखाब्रह्ममें लगायदये हैं ते पलटाये नहीं पल्टै हैं वाहीको गैहै हैं । काहूके तो बाण सहित गाँसी के अटकिरहै हैं ते वही ब्रह्मको प्रतिपादन करै हैं सत् मतको खंडन करै हैं औ वे जे ऊपरते बेष बनाये हैं भीतर धोखाब्रह्मही घुसो है तिनके भीतर करेजे में गाँसिही भर अटकी है तामें प्रमाण ॥ अन्तश्शाक्ता बहिश्शैवाः सभामध्ये च वैष्णवाः । नानारूपधराः कौला विचरति महीतले। अथवा गुरुवालोग जो और और देवतन को मत सुनायो है सोई उनके अंतःकरणमें जाइकै अज्ञानरूपी वृक्ष जाम्यो है तौनेकी कुमतिरूपी फाँस याके करेने में गड़िरही है सो वह करक कहे जनन मरणरोग नहीं जायहै अर्थात् वा फाँस काहूकी निकासी नहीं निकसै केतो उपदेश कोई कैरै सो कवीरजी कहै हैं कि काहू गुरुवनकी यहजीव के कहा गाँस कहै बैररह्या है जो ऐसी फाँस मारयों जो अबलौं निकासी नहीं निकसै ॥ ९९ ॥ काला सर्प शरीरमें, सव जग खाइसि झारि ॥ बिरलै जन बचिहैं जोई, रामहिं भजें विचारि ॥१००॥ कालरूप जो सप्पै सो सबजीवन के शरीर में बसै है शरीरके साथ उत्पन्न भयो है जेती अवस्थाजायहै तेतीकाल खातोजाय है जब आयुर्दीय पूरिगई तब सबकाल खायलियो याहीभाँति बस जगत्को कालझारादै खाये लेइहै जे सबमतको छोड़ि परम पुरुष श्रीरामचन्द्रको बिचारिकै भनै हैं तेई बिरलैलाचें हैं तामें प्रमाण