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साखी। (५५९) कहता तो बहुता मिला, गहता मिला न कोइ । सो कहता वहि जानदे, जो नाहिं गहता होइ ॥ ७९ ॥ | साहब कहे हैं याही भांति कहता तो बहुत मिल्यो गहता कोई नहीं मिलैहै सो जो कोई गहता नं होय ताके हैं बहिजानदे तोको कहापरी है ॥ ७९ ॥ एक एक निर्वारिया, जो निरवारी जाय ।। | दुइ दुइ मुखको बोलना, घने तमाचा खाय ॥ ८० ॥ तामें पुनि कबीरजी कहै हैं कि हेसाहब! याको जीवको दोष नहीं है एक २ जो निरवारतो तौ वेद शास्त्र ते याको निरवार लैजातो अंर्थात् जो एकमालिक आपही ठहराय देतो तौ जीव गहिलेतो । दुइदुइ मुखको बोलना वेद शास्त्रको अर्थात् कर्ह ब्रह्मको, कहीं ईश्वरको, कहीं जीवको, कहीं कालको, कहीं कर्मको मालिक बतायो सो या दुइमुख के बोलेते जीवघने तमाचा खायहै तुम को नहीं जानिसकै ॥ ८० ।। जिल्लाको दै बंधने, बहु वोलना निवारि ॥ सो परखी सों संग करु, गुरु मुख शब्द विचारि॥८१॥ सोकबीरजी कहै हैं कि हेनीव! मैं साहबसों विनती करलियो है सो तुम यहिराह चलो तुम्हारो उबार साहब करिलेइगो आपनी जिह्वाबंधनकरो असर वाक्य न बोलनेपावे एकरामनामहीं कहो औनाना मत जोकहौ हौ सो कहिब निवारि देउ । औं जौन सबमतनते पारिखकारकै साहबको ठहरायो होय ऐसे पारखीको संगकरु औगुरुमुख जोशब्दहै ताको तू बिचारकरु काहेते साहेब या कह्यो है ॥ *“अबहूँ लेहुँ छुड़ाय कालसों जो घट सुरति सँभारै ? ॥ सो रौं सुतिसँभारि साहबमें लगायदे अनत न जानदे साहब तोको संसार सागरते उबारिही लेईंगे ॥ ८१ ॥ जाकी जिह्वा बंद नहिं, हृदया नाहीं सांच ॥ ताके संग न लागिये, घालै बटिया कांच ॥ ८२॥