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(९९८) बीजक कबीरदास । गरु कॅबै कानलग्यो? अर्थात् नहीं लग्यो । अरु गुरुतो वाको केहे हैं जो अज्ञानको नाशकरै सो जो चेलाको अज्ञान ने नाशभयो ती गुरुचेला दोऊ नरकको जाय तामेंप्रमाण ॥ “हरें शिष्य धन शोक न हरहीं । ते गुरु घोर नरकमें परहीं ॥ १ सो जो वो चेलाको अज्ञान दूरि ने किया तो कौन गुरु है औ जौन गुरुते ज्ञानलै अज्ञान न नाशकियो तो वह कौन चेला है अर्थात् वह गुरुनहीं है कायरकूर है और वह चेलानहीं है टूट मसखराहै और जो आज्ञानका नाशै सोई गुरु तामॅप्रमाण ॥ * अज्ञानतिगिरान्धस्यज्ञानाञ्जनशलाकया । चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः' औ जो संसार दूर नहीं करै है सो गुरुनहीं है तामेप्रमाण ॥ * गुरुर्न स स्यात् स्वजनोन स स्यात् पिता न स स्याज्जननी न सा स्यात्॥ दैवन्न तत्स्यान्नृपतिश्च स स्यान्न मोचयेद्यस्समुपेतमृत्युम् ॥ श्रीकबीरजीकी गुरुपारख अंग की साखी ॥ * गुरू सीख देवे नहीं, चेला गहै न खूट । लोक वेद भावे नहीं, गुरु शिष्य कायर टूट' ॥७६॥ ढिग बूड़ा उसला नहीं, यहै अंदेशा मोहिं ॥ सलिल मोहकी धारमें, क्या निंद आई तोहि ॥ ७७॥ | साहब कहै हैं कि हे जीवो! तुम सब संसार सागर के तीरही में बुड़िगये एकहूबार न उसले,यहै मोको अंदेशाहै या संसारसागरके मोहरूपी सलिल धारमें क्या तोको नींद आई है भला एक बारतो मूड़निकासि उसलि मोको पुकारतो तो मैं तोको पारही लगावतो सर्वत्र पूर्णमैं बनोहौं तें मेरे दिगह बूड़ों जाताहै अबहूं जो जानतो मैं पारही लगाय देहूं ॥ ७७ ॥ साखी कहैं गहें नहीं, चाल चली नहिं जायं ॥ सलिल मोह नदिया है, पार्यों नहीं ठहराय ॥७८॥ कबीरजी कहै हैं कि साखीतो कहै हैं औ जो मैं साखी कहो. है ताको गहैं नहीं हैं वाको विचारै नहीं हैं । औ जो मैं चाललिख्यो है सोऊ नहीं चलीजाय संसाररूपी नदियामें मोहरूपी सलिलबहे है तामें पांवे नहीं टहराय जीव विचारा क्याकरै यो साहब सों अनैकै जीवको क्षमापन करावै है ॥ ७८ ॥