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साख । मत । । कलियुगंमें कबीर नामते एक रामनामै को उपदेशकियो सो जो तें वह रामनामको जानते तो तेरे समीप मोको आवननपरतो हंसशरिदै अपनेपास छैआवतो ।। ७३ ॥ जो तू साँचा बानियाँ, साँची हाट लगाउ ॥ अंदर झारू दैकै, कूरा दूरि बहाउ ॥७४॥ हेजीव! जो मैं अपने स्वरूपको चीन्है तो तैसाँचा बानियाँ है सो साँची हाटलगाउ कहे साँचे जे साहब तिनकोजानु औ उनके नामरूप लीलाधाम सब सँच तिनकीहाट लगाउ कहे स्मरणकरु । ॐ अन्दरमें झारूदैकै बिषय बासना औ नाना मत जे कुरा हैं तिनको दूरि बहायदे तू साँचा है साहवको है। असचेत मान लागु ॥ ७४ ॥ कोठी तौ है काठकी, ढिग ढिग दीन्ही आगि । पण्डित तो झोलाभये, साकठ उबरे भागि ॥ ७५॥ कोठीजे हैं चारौ शरीर ते तो काठकी हैं जरन वारी हैं ज्ञानाग्नि ढिग ढिग उनके लगी है । वेदशास्त्र पुराण साहबको बतावै हैं सो जे पण्डितरहे ते सारासारको विचारकर साहब ने सार तिनको जान्यो ते उसअग्निमें परिकै झोलाद्वैगये । ये कहे उनके सबशरीरजरिगये । अर्थात् संसारते मुक्त हैगये । औ साकठ जे हैं शाक्तते भागिकै उबरेकहे जो वेदशास्त्र साहबका प्रतिपादनकरै है। ताके डांड़े नहीं गये खण्डन करनलगे उनसों भागिकै संसारमें परे मायामें लपेट हैं मायैको स्मरण करनलगे ॥ ७५ ॥ सावन केरा मेहरा, बुंद पुरा असमान ।। सब दुनियाँ वैष्णव भई, गुरू न लाग्यो कान ।। ७६ ॥ जैसे श्रावणके मेहको असमान बुन्द परै है तैसे सब दुनिया वैष्णवहाँत भई । सब बीज मन्त्र लेत भये जैसे लोक में को गुरु हजारनचेला एकैबार बैठा| यकै मन्त्र गोहरायदेय हैं याही भाँति श्रावण कैसामेह सबको मन्त्रदेइ हैं चेला• मन्त्रलेइहैं । याही रीति गुरुवालोग उपदेश करतभये कोटिन बैष्णवहोत भये