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साखी । | (५४३ ) पर्वत आगे जीव ब्रह्मको कहिआये हैं सो पर्वत जो ब्रह्म ताके ऊपर हर जो माया सो है अर्थात् सबलित वैकै संसारकी उत्पत्ति करै है । सो घोड़ा जो है। मन तौनेमें गाउँ जो संसार है सो बसै है अर्थात् मनैमें सब संसारेहै बिनफु ल कहे या संसार तरु को फूल विषय है सो मिथ्या है कछु बस्तु नहीं है तौनेको रसभरारूप जीव चाखैहै सो वा बिरवाको नाउँ तो कहु ? नाम संसार मिथ्याहै जौन याको सांचनाम है ताको क हु। ताको तें ध्वनी यहहै नहीं जानै है ॥३६॥ चन्दन वास निवारहू, तुझ कारण वन काटिया ॥ जिवत जीवजनि मारहू, सुयेते सबै निपातिया॥३७॥ | हे चन्दन जीव ! अपनी बासना तू निवारणकरु । काहेते कि, मैं तेरे कारण नौने गुरुवनकी नाना बाणी नाना मतनमें तुम लाग्यो तिनकी बाणी रूप बन काटि डारयो अर्थात् खण्डन करिडारचे जाते तुमको ज्ञानहोय । सो बासना में परिकै जीवत जीव तुम अपनो न मारो । जो वामें लागि जाहुगे तो म्हारो नीवत्व जात रहै गो मरिजाहुगे । वाही धोखामें लगिकै आपको ब्रह्म मानन लागोगे तब निपातिया कहे सब साहबके ज्ञानको निपात वैजाइगो ॥ ३७॥ चन्दन सर्प लपेटिया, चन्दन काह कराय॥ रोम रोम बिष भीनिया, अमृत कहाँ समाय ॥ ३८ ॥ चन्दन जो जीवहै सो कहाकरे है । सप्प नेगुरुवालोग ते लपटिरहे हैं सो उनकी बाणी को जो है बिष सो रोमरोम बिषे भेदि गयो है हमारो उपदेश नो अमृत सो कहां समाय ॥ ३८ ॥ ज्यों मुदादि समसानसिल, सव यक रूप समाहिं ॥ | कह कबीर साउज गतिहि, तबकी देखि भुकाई ॥३९॥ जैसे मुदादि समसानसिल होइहै सो जो कोई देखै है ताको मुरैलैरूप देखिपरे है । सो कबीरजी कहै हैं कि, गुरुवालोगनकी बाणीरूप सिलमें तबकी कहे सृष्टिके आदिमें आपनीगतिदेखे हैं कि, तबहॅहम ब्रह्मरहे हैं या मनिकै भोकै हैं कि, हमहीं ब्रह्महैं । अथवा ज्यों भुदादि कहे मुदको आदि ब्रह्म ज्योंकहे कैसे जैसे मसानते सहित सिल पाथरकेभुतहा चौरा, जेई व चौरा में बैठे हैं साभभु