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(५४२) बीजक कबीरदास । घर कबीरका शिखर पर, जहां सिलि हिली गैल ।। पाँय न टिकें पिपीलिका, खलक न लादे बैल॥३३॥ श्रीकबीरजी कहै हैं कि, में गुरुवालोगौ ! हमारा घर शिखर जो रामनामहै। तामें है । तहगैल चिकनीहै चींटी जो बुद्धि ताहीके पांय नहीं टिकैहैं अर्थात् वा मन बचनपरे हैं रामनाम औरस्वरूपहै. तहां तुम पहुंचि न सकी हौ ताते बिछुल गैल हौ उहां नाना मत शास्त्र रूप लाद लादे बैल जे हैं गुरुवा ते नहीं जाइ सकैहैं । अर्थात सूक्ष्म बुद्धिहू नहीं जाइसकै हैं तौ तुम जे नाना मतनको लाद लादेही सो कैसे जाइ सकीहौ जहां मैं टिकौहौं तहांभार तुमहूं पहुंचि सकतै नहींहो कहां कलेवा देउगे कहां बाहन देउगे ॥ ३३ ॥ विन देखे वहि देशकी, बातें कहै सो कुर ॥ आपै खारी खात हौं, बेचत फितर कपूर ॥ ३४ ॥ श्रीकबीरजीकहेहैं कि, जौने शिखरमें हम चढ़े हैं तैौने देशको बिना सतगुरु द्वारा देखे जे बात वहांकी कहहैं ते क्रूर हैं । अर्थात तुम हमको उतरन शिखरते बिना जाने कहौहौ सो तुमहीं क़रहौ । कैसे हो आपतखारी ने नाना मत तिनको ग्रहण कीन्हेही स्वच्छ उज्ज्वल कपूर जो है ज्ञान ताको बेचत फिरीही। अर्थात् द्रव्य हैकै चेला बनावत फिरौहै। । भाव यहहै कि, नामको भेद नहीं जानौ हमारे इहां कैसे पहुंचौगे ॥ ३४ ॥ शब्द शब्द सबको कहैं, वातो शब्द विदेह ॥ जिह्वा पर आवै नहीं, निरखि परख कर लेह ॥ ३८॥ शब्द शब्द सबकोई कहेहैं परन्तु वा शब्द जो रामनामहै सो विदेहहै बिना शरीरका है जिह्वा में नहीं आवै है मन बचन के परे है ताको ज्ञानदृष्टिते निरखिकै पारिख करिलेहु ॥ ३५ ॥ परवत ऊपर हर बसै, घोड़ा चढ़ि बस गाउँ ॥ विन फुल भौंरा रस चखै, कहु विरवाको नाउँ ॥ ३६॥