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(५३६) बीजक कबीरदास । सब अपनी २ वाणी और कल्पना में मस्त हैं। जो तृषित होइँगे अर्थात् मुक्तिको चाहेंगे तो तुम्हार उपदेश रूपपानी झख मारिके कहे लाचार है कै आपै पियेंगे । समुद्रको खाराजल त्यागि देंगे ॥ १२ ॥ हंसा मोती बिकानिया, कंचन थार भराय । जो जस मर्म न जानिया, सो तस काह कराय॥१३॥ श्रीकबीरजी कहै हैं कि, हे विवेकी जीवौ ! हे हंसो ! कंचन थार रूप जो तुम्हारे अन्त करनः तामें मोती रूप साहब को ज्ञान मोते भराओ अर्थात् मैं तौ तुमको उपदेश देह तुम कहा बिकत फिरौ हौ । जौन जस पदार्थ होइ है तौने को तस न जानत है तौ वाको लैकै का करै ।। अथवा-कबीरजी कहै हैं हे हंसो ! हे जीवो ! मोती जो निर्मल शुद्धरूष आपना स्वरूप तौनेको कंचन थार जो माया तैौने में भरिके विकनिडारे अर्थात् कनक कामिनीमें लगाई कै मायाके हाथ बेचिडारे । सो जो जौने तराते आपने स्वरूपको न जानि सक्येा सो जाहिमें जैसी लग्यो ताहिमें तैसो है अज्ञान भयो । अब कहा केरै मायामें फेंसिकै मरिगै ॥ १३ ॥ हंसा तुम सुवरण वर्ण, का वरण मैं तोहि ।। तरवर पाय पहेलि हो, तबै सराहौं छोहि ॥ १४ ॥ हे हंसा जीव ! तुम सुवरण जे मकार ताके बर्णहौ, मैं तोंही का वरण अर्थात् तुमहूं मन बचनेके परे हो सो तरिवर जो यो संसार ताको जब पाइके पहेलिहो कहे ठेलि जैहो अर्थात् संसार को दूरि करि दैहो तबही मैं तोको छोह करिके सराह गौ कि बड़े बन्धनमें बंधिके छुट्यो ॥ १४ ॥ हंसा तू तो सबल था, हलकी अपनी चार ।। रंग कुरंगी रंगिया, किया और लगवार ॥ १६॥ हे हँसा जीव ! तुमतो सबंल कहे सम्यक प्रकार बलवाले थे ( तेहोरो • साहबौ सबळहै ) परंतु अपनी चार कहे अपनी चालते हलुक कहे निबल है। गयो काहेते कि रंग कुरंग जो यो संसार है तौनेमें रंगिगै केहै राग करि लियो।