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साखी । ( ६२९ ।। मारग मीन अगोचर मुद्रा बेद् अर्थर्बन जानी ।। ज्वाला कल चतुर्थ पद गायत्री आदि शक्ति ततु बाऊ । आश्रय लोक बिदेहानंद मुक्ति साजन बताऊ ।। नृणै प्रकाशिक तुरी अवस्था प्रत्यज्ञात्मतु अभिमानी । शीव अहंकार महाकारण तन इहो कबीरबखानी ॥ ४ ॥ संत केवल देह बखाना । केवल सकल देहका साक्षी भमर गुफा अस्थाना ॥ निराकाश औ लोक निराश्रय निर्णय ज्ञान बसेखा । सूक्षम वेद् है उनमुन मुद्रा उनमुन बाणी लेखा ॥ ब्रह्मानंद कही हंकारा ब्रह्मज्ञानको माना । पूरण बोध अवस्था कहिये ज्योतिस्वरूपी जाना ॥ पुण्य गिरी अरु चारुमात्रुका निरंजन अभिमानी ।। परमारथ पंचम पद गायत्री परामुक्ति पहिचानी ॥ सदाशीव औ मार्ग सिखाहै लहै संत मत धीरा । कालेतीत कला सम्पूरण केवल कहै कबीरा ॥ ५ ॥ संतौ सुनी हंस तन ब्याना । अबरण बरण रूप नहिं रेखा ज्ञान रहित विज्ञाना । नहिं उपजै नहिं बिनशै कबहूँ नहिं आवै नहिं जाहीं । इच्छ अनिच्छ न दृष्ट अदृष्टी नहिं बाहर नहिं माहीं ॥ मैं तू रहित न करता भोगता नहीं मान अपमाना । नहीं ब्रह्म नाहिं जीव न माया ज्यों का त्यों वह जाना । मन बुधि गुन इंद्रिय नहिं जाना अळख अकह निर्बना । अकल अनीह अनादि अभेदा निगम नीति फिार जाना ।। तत्त्व रहित रबि चंद्र न तारा नहिं देबी नाहं देवा । स्वयं सिद्धि परकाशक सोई :नहिं स्वामी नहिं सेवा ॥ हंस देह विज्ञान भाव यह सकल बासना त्यागे । नहिं आगे नहिं पाछे कोई निज प्रकाशमें पागे ।