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(५२४) बीजक कबीरदास । अथ तीसराहिंडोला ॥ ३ ॥ जहँ लोभ मोहके खम्भ दोऊ मने रच्योहौ हिंडोर ।। तहँ झुलहिं जीव जहान जहँ लगि कुतहुँ नहि थिति ठोर१॥ चतुरा झुॐ चतुराइया औ झूलें राजा सेव । अरु चन्द्र सूरज दोऊ झूलहिँ नाहिं पायो भेव ॥ २॥ चौरासि लक्ष जीव झूलें धरहिं रविसुत धाय ।। कोटिन कलप युग वीतिया मानै न अजहूं हाय ॥३॥ धरणी अकाशहु दोऊ झूलें झुलैं पवनहुँ नीर।। धार देह हार आपटू झूलाहिं लखहिं हंस कबीर ॥ ४॥ जौन जगदमें लोभ मोहके खम्भ बनाइकै मनको रच्यो जो हिंडोल ताहीमें सब जहानके जीव झूलै हैं थिर नहीं कौनौ ठौर में रहै हैं । चतुर चतुराईते झूलै हैं,राजा झूलै हैं, सेवक झूलै हैं, चंद्र, सूर्य तेऊ झूलै हैं । हिंडोलाको भेद नहीं पावै । चौरासी लक्ष योनिके जीव झूलेहैं तिनको सबको रवि सुत जे यमराज ते धेरै हैं । सो कोटिन कल्प बीतिगये जीवनका झूलत परन्तु अजहूं नहीं माने है। औ धरणी आकाश पवन पानी ये सब वही हिंडोला में झूलै हैं औ देहधरिकै कहे अवतारलैकै जौनी रीति सब झूलै हैं तौनी रीति हरि आपहू झूलै हैं । जीवनको यह दिखाइबे को कि, जैसे तुमहूं झूलौह तैसे हमहूं झूलै हैं सो देहधरेको फल यह है इन को हेतु कोई जानि नहीं सकै है कि, जीवनपर दयाकरिकै उद्धार करिबे को हेतु दिखावै हैं कि, देहको फल यह संसारई है ताते देहको अभिमान छोड़ि हमारे अवतारके नाम लीलादिकनमें लागि, मनको त्याग करि के चारों शरीरनको त्याग करिदेउ । जब तुम अपने स्वरूप में स्थित रहोगे तब हंस स्वरूप दै आपने धामको लै आवेगो । यह बात कोई नहीं लखै है कहे जानै है । जे हंसस्वरूप पाये कायाके बीर जीवहैं तेई जाने हैं याते साहबकी दयालुता व्यजितभई ॥ १-४ ॥ इति तीसरा हिंडोला । हिंडेला समाप्त ।