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हिंडोला । (५२३) टिमहामंत्राश्चित्तविभ्रमकारकाः ॥ एक एव परो मंत्री रामइत्यक्षरदयम्' ! इतिसारस्वततंत्रे ॥ दूसरापमाण ॥ ‘इममेवफ्रंमन्त्रं ब्रह्मरुद्रादिदेवताः॥ऋषयश्च महात्मानो मुक्ता जप्त्वाभवाम्बुधेः' ।। इति पुलहसंहितास्मृतिः ॥ ८ ॥ ९ ॥ इति प्रयम हिंडोला समाते । अथ दूसरा हिंडोला । बहुबिधिके चित्र बनाइकै हरि रच्यो क्रीडा रास ।। ज्यहि नाहिं इच्छा झूलबे अस बुद्धि केहिके पास।।१।। झूलत झुलत बहु कल्प बीते मन न छोड़े आस ।। यह रच्यो रहस हिंडोलना निशिचारि युगचौमास ॥२॥ कवहूंक ऊँच नीचे कवहूं स्वर्ग भूल जाय ।। अति भ्रमत श्रमहिं हिंडोलना सोनेकु नहिं ठहराय॥३॥ डरपत रहौ यहि झूलिवेकौ राखु यादवराय ।। कह कविर सुनु गोपाल विनती शरण हों तुवपाय ॥४॥ बहुतबिधि चित्र बनाइकै या जगत् हरि जे हैं गोलोकबासी कृष्णचन्द्र आपनी क्रीडा बनाइ राख्यो है अर्थात् अन्तर्यामी रूपते आपही बिहार कर हैं। सो या जगतरूप हिंडोला में झूलिबेकी बुद्धि केहिके नहीं आई अर्थात् सबैकै है न झलिबकी बुद्धि कोई विरले सन्तन के हैं । सो ऐसो हिंडौलाना चोरि युग जे हैं चौमास तामें रच्यो है जीवनके झूलत झलत कोटि कल्प व्यतीत भये तऊ झलिबेकी आशा मन नहीं छोड़े है। हिंडोलाके चढ़या कहूं नीच अवै है कहूं ऊंचे जायतें ऐसे अति भ्रमत जो जगद रूप हिंडोला तामें परे जे जीव । कहूं नरकको जायँ हैं, कहुं स्वर्गको नाय है । सो ह जीवौ! या जगतुरूप हुडा। झुलिबैको डरत रहो राखु यादवराय या कहो कि हे यादवराय कृष्णचंद्र हमको बचायो । सो हे कायाके बीरौ जीवौ ! यह कहो कि,हे गापाल ! गाज है इन्द्रिय तिनके रक्षा करनवारे हमारी बिनती सुनो हम तुम्हार चरण शरण हैं ॥ -४ ।।