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चाचर। (५०५) औ चाचारमें दुइ पारा होय एकओर खी एकओर पुरुष होइहैं ऐसे सुर । नर मुनि सब एक ओर माया अकेली आप है दृष्टिपरे काहूको नहीं छोड़ें है॥११॥ वैसे स्त्री जे हैं ते आपने घूघुट में सबको मन समाय लेइहैं सबके काजर लगाइदेइ हैं अदगकोई नहीं जायेहै वैसे माया जो है सोऊ आपने में सबको समाय लियो है सबके एकदाग लगाइ दियो है अग कोई नहीं बच्यो ॥१२॥ चाचर में स्त्रिनके द्वारे इन्द्र कृष्ण सबखड़े रहै हैं लोचन देखिबको ललचायहैं ऐसे माया जोहै ताहूके द्वारमें इन्द्रकृष्णजे हैं उपेन्द्र ते खड़े हैं मायाके देखिबे को लोचन ललचाय हैं स श्रीकबीरजी कहै हैं कि तेई पुरुष उबरे हैं ने मोहमें नहीं समाने हैं ॥ १३ ॥ इति पहिली चाचर समाप्त । अथ दूसरी चाचर। जारहु जगको नेहरा मन बौराहो। जामें शोक संताप समुझ मन बौराहो ॥ १ ॥ काल बूतको हस्तिनी मन बौराहो । चित्र रचौ जगदीश समुझ मन बौराहो ॥२॥ बिना नेइको देवघरा मन बौराहो। विन कहागिलकै ईट समुझ मन बौराहो ॥३॥ तन धन सो क्या गर्व समुझ मन बौराहो। भसम क्रीमकी साजु समुझ मन बौराहो ॥ ४ ॥ काम अन्ध गज वश परे मन बौराहो। अंकुश सहिया शीश समुझ मन बौराहो ॥ ६॥ ऊँच नीच जानेहु नहीं मन बौराहो । घर घर नाचेहु द्वार समुझ मन बौराहो ॥ ६॥