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(९०४) बीजक कबीरदास । चाचरिमें स्त्री भोडरकी ढाल आगेकर पांव पीछको नहीं टारै हैं सो खेलनिहारी जे हैं ते जब पतिको पाय जाय हैं तब कहै हैं कि, खेलि लेउ अब ऐसो दावें न मिलैगो। औ यहां मायाजो है सोऊ अज्ञानकी ढाल आगे लीन्हे है, जाको पांव ज्ञानभक्ति बैराग्यकार टारे नहीं टरै सो, खेळनिहारी जो माया सो खेलबै करी ऐसे दांवें वाको फिर न मिलैगो अपने वशकर पायेहै ॥७॥ औ चाचर में स्त्रिनते पुरुष हारि जाइहैं सुख मानै हैं औ माया जो है ताहूसों सुर जेहैं देवता, नर ने हैं मनुष्य, मुनि जे हैं ज्ञानी, भूदेव ने हैं ब्राह्मण, गोरख जे हैं योगी कवि, दत्तात्रेयजे हैं अवधूत, ब्यास जे हैं कवि, सनकसनंदनने हैं। त्यागी ते सब हारिगये औरकी कौन गिनती है ॥ ८ ॥ छिलकत थोथे प्रेमसों, धारि पिचकारी गात । कर लीनो वश आपने, फिर फिर चितवत जात९॥ ज्ञान गाड़ लै रोपिया, त्रिगुण लिये है हाथ ।। शिव सँग ब्रह्मा लीनिया, और लिये सब साथ॥ १०॥ चाचर में नारी रंगकी पिचकारी गति में सींचि आपने बश कर फिर फिर चितवत कहे कटाक्ष करै हैं इसी प्रकार मायाजहै सोऊ थोथे कहे झूठेप्रेमसो संसार राग सबको गातसींचैहै आपनेबश करिलियोहै औ फिरिफिरि चितवत जाते है कहे सबको ताकेरहै है कि कोऊ बाच्यौतौ नहीं ॥९॥ औचाच रिमें स्त्री लोग रंगकेहौदमें डारदेइ हैं औ फूलनके मालामें हाथबांधे हैं पुरुषनको वैसेही माया जाहै सोऊ ज्ञानके गाड़में ब्रह्मादिक देवतनको डारिकै त्रिगुण की फांसीमें बांधि लियो ॥ १० ॥ एक ओर सुर मुनि खड़े, एक अकेली आप।। दृष्टि परे छोड़े नहीं, कारलिय एकै छाप ॥ ११ ॥ जेते थे तेते लियो, घूघुट माहू समाय । कज्जल वाके रेख हैं, अदग न कोई जाय ॥ १२ ॥ इन्द्र कृष्ण द्वारे खड़े, लोचन निज ललचाय । कह कबीर ते ऊबरे, जाहि न मोह समाय ॥ १३॥