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बसंत । (४९३) सब आपन आपन चहैं भोग । कह कैसे परिहैं कुशलयोग५ बीबेक विचार न करै कोइ ।सव नवलक तमाशा लखै सोइ६ | सोये विषय कैसे हैं कि अंतरमें अंत लेइहैं कहे गड़ि जाते हैं । झकझेलि कैकहे जोरवारी झुलाउव जो आवागमन है सोजीवको देइहै ॥ ४ ॥ सो ये सब आपन आपन भोगचाह्यो तवजीवको कुशल को योग कैसे पैरै अर्थात् कैसे कल्याण पावै ॥ ५ ॥ सो ये बंधनका विवेककहे बिचार कोई नहीं करै हैं कि क्या सांचहै क्या झूठहै सब खलक कहे सब संसारके लोग आणी विषयनकों तमाशा देखैहैं औं वहीमें अरुझि रहेहैं ॥ ६ ॥ मुख फारि हँसै सव रावरंक। तेहि धरन न पैहो एक अंक ७ नियरे वताबें खोजें दूरि । वह चहुँ दिशि वागुरि रहलपूरि ८ है लक्ष अहेरी एक जीउ । ताते पुकारे पीउ पीउ ॥ ९ ॥ सो वही विषयमें परिकै मुख फारकै राव रंक सब हँसे हैं या दुःखदायीहै। विषय या अंक को नहीं धरन पावै है तेहिको ॥ ७ ॥ सो वेद शास्त्र पुराण साहबको तौ नियरेही बतावैहैं औ दूरिखोजै हैं काहेते कि, मायारूप बागुरि सर्वत्र पूरिरहीहै ॥ ८ ॥ सो येतो सब शिकारी हैं औ लक्ष कहे निशाना एकजीवही है ताते हे जीव ! हैं पीउ पीउ पुकारै तबहीं तेरे बचाउहै ॥ ९ ॥ अबकी वारे जो होयचुकाव । ताकीकवीर कह पूरिदाव १० सो श्रीकबीरजी कहै हैं कि, अबकी बार जो मानुष शरीर में चुकाव होयगो औ साहबको न जानैगेतौ ताकी पूरिदावहै काहेते कि अबकीबारके चूकेफेरि ठिकाना न लगैगो चौरासीलाख योनिन में भटकैगो फेरि जो भागन शरीर पावैगे तब पुनि नाना मतनमें लगिकै चौरासी लाख योनिमें भटकैगों उद्धार न होइगो । ताते अबकी बार जो समुझै ओ साहबको जानै तौ तेरो पूरो दांव परै तामें प्रमाण कबीरजीकीसाखी । “लख चौरासी भटकि कै, पौमें अटको आय ॥ अबकी पौ जो न परें, तौ फिर चौरासी जाय '॥ १० ॥ इति सातवां बसन्त समाप्त ।