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बसंत । | (४९१ ) जानै है बड़े भोर कहे जबदूसर भयो तब आंगन बहार कहे गर्भवासमें ज्ञानदियो अंतःकरण साफकियो यहीबहारबो है औ बड़ीखांच जो प्रसूत वायु तौनेते गर्भरूप गोबरटारयो अर्थात् बाहर निकारयो । औ बासीभात जो पूर्व कर्म ताको दुःख सुख आपही भोगै है । औ वैलानो बुद्धिहै ताको ढुकै गुरुवन के इहां नाना बानी रूप पानी ताको लेनजाइ है अर्थात् बुद्धित निश्चयकरै है। ऐसोजो मोर सैंया है ताका पाट जो ज्ञान तामें बांधे पाऊं तौ हाट हाट में बेंच अर्थात् साधुनको संगकरिके अपनो औ या सम्बन्ध छोड़ायदेउँ । सो श्रीकबी रजी कहै हैं कि, जोइया जो जीव तौनेको ढिंगरा जोमन सो हरि जे श्रीरामचन्द्र तिनको कान में जो नहीं लागै तौ याका कौन लाज है । धुनि या है जो साहबमें लँगै तौ यहू शुद्ध होइजाय ॥ १-५ ॥ इति छठवां बसंत समाप्त । अथ सातवां बसंत ॥ ७॥ घरहीमें बाबुल बढ़ी रारि।अँग उठि उठि लागै चपल नारि । | वह बडी एक जेहि पांच हाथ। तेहि पचहुनके पच्चीस साथ२ | पच्चीस वतावें और और। वे और वतावै कई और ॥ ३ ॥ सो अंतर मध्ये अंत लेइ । झकझेलि झुलावै जीव देह ॥ ४॥ सब आपन आपन चहैं भोग। कहु कैसे परिहै कुशल योग विवेक विचार न करै कोइ। सब खलक तमाशा देख सोइ ६ मुख फारिहँसैं सब राव रंक । तेहि धरे न पैहौ एक अंक ॥७॥ नियरे वतनैं खोजें दूरि। वह चहुँ दिशि बागुरि रहल पूरि ८ | हे लक्ष अहेरी एक जीउ । ताते पुकारै पीउ पीउ ॥ ९॥ | अबकी बारे जो होय चुकाव। ताकी कबीर कहपूरिदाव १०