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बसंत । ( ४८९) विद्या अविद्या रूपीते बकरि लिया है धुनि याहै, जिनको साहव आपनों हंसरूप दिया है तेई बचे हैं या उपसंहार कियो ॥ ४ ॥ कह कवीर बुढ़िया अनँद गायापूत भतारहि वैठि खाय॥३॥ सो श्रीकबीरजी कहै हैं कि बुढ़िया जो माया है सो जैसो या पद कहि आये तैसो आनंदसों गावैहै । वेद शास्त्रादिकनमें बाणीरूपते सजीव सुनैहैं। परन्तु या नहीं जानेहैं कि, जीव औ ब्रह्म माया के भितरै है । पूत जो जीव है औ भतार न ब्रह्महै ताको बैठिखाय है अर्थात् जयजीव संसारी भयो तब संसारमें डारिकै खायो जब ब्रह्म में लीनभयो । सृष्टि समय आयो तव वा ब्रह्मज्ञान नहीं रह जाइहै ब्रह्महूंको खायो ॥ ५ ॥ | इति चौथा बसंत समाप्त । अथ पाँचवाँ बसंत ॥ ५ ॥ | तुम बूझहु पण्डित कौन नारि । कोइ नाहिं विहिल रहल कुमारि ॥ १ ॥ यहि सब देवन मिलि हरिहि दीन्ह ।। तेहि चारिहु युग हरि संग लीन्ह ॥ २॥ यह प्रथमहि पद्मिनि रूप आय । है सांपिनि सब जग खेदि खाय ॥ ३ ॥ या वर युवती वेवारनाहअति तेज तिया है रौनि ताह ॥ ४ ॥ कहकबीरसवजगपियारि। यहअपनेवलकवैरहलमारि ॥५॥ तुमवूझड्डुपंडितकौननाशिकोइनाहिंविआहलरहलकुमारि। यहि सबदेवनमिलि हारहिदीन्हातेहिचारियुगहरसंगलीन्ह२ श्रीकबीरजी कहेहैं कि, हे पण्डित ! तुम बुझौ तौ या शङ्खिनी हस्तिनी चित्रिणी पद्मिनी चारि प्रकारकी नारिनमें कौन नारिहै या माया है ? अर्थात् एकौके