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बसंत । | (४८७) रचतुर्भई । औ ताना पक्षमें पांच पचीस तत्त्वकेकहे सबकोरीकै साजु आइगे। औ धरिकहे सबअपने अपने धमारमें लगिगे कैड़ावारे माड़ीवारे पुरियावारे करिगहवारे तानासाफकैरैवारे औ धमारिपक्षमें पांच सखी धमारि रच दुइ एकबार कियो एकदेखैया भो ॥ ६ ॥ वेरंग बिरंगी पहिरें चीर। धरि हरिके चरण गावै कवीर॥७॥ पांच जे सखाहैं पांच तत्त्वनका रंग बिरंग चीर पहिरें । स्वरोदय में लिखै है श्वास तत्त्वनके रंग जुदजुदे देखे परै हैं औ कोरीके घरके अनेक रंगकेंचार पहिरै हैं । औ धमारि पक्षमें केशरि कस्तूरी करिकै गुलाल भोड़र करिकै चोर रंग बेरंग होय ते पहिरे हैं। सो यहि तरह की धमार या संसारमें है ताते हरिको चरण धरिकै कबीर गोवै है है है । या धमारिको प्रथम या कहि आये हैं जौने लोक में सदा बसंत है तहांप्रवेश करावो । औ इहां धमारि कहैं। हैं तात्पर्य यह कि, या शरीरको ताना बाना जनन मरण में परिरह्यो है या धमारि तुमको देखायो जो रीझे होहु तो मैं फगुवा यही मांगै हौं कि जहां सदा बसंत है वा लोक में प्रवेश करावो औ न रीझ्यो होहु तो तुम हरिहौ या ताना बाना धमारि हरिलेउ । या कहो कि, “ऐसी धमार तें न रचु? कबीर कहै हैं कि हे जीव हरिके चरणधार ऐसी बिनयकरु ॥ ७ ॥ इति तीसरावसंत समाप्त । अथ चौथा बसन्त ॥ ४॥ बुढ़ियाहँसिकहमैंनितहिवाशिमोहिंऐसितरुणिकहुकौननारि१ ये दांत गये मोर पान खातोऔ केश गयल मोर गैंगनहात २ औ नयनगयल मोरकजल देताअरुबैस गयलपरपुरुषलेत३ औजान पुरुष वा मोर अहार।मैं अन जानेको कर अँगार४ कह कवीर बुढ़ि या आनँद गाय । पूत भतारहि बैठी खाय॥