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(४७२ ) बीजक कबीरदास । नवारी माया सो जहां रहै है तहैं तोको ये सब कामादिक हैं जो यह मानि राख्योहै कि प्राण चढ़ाईंकै ब्रह्मांड में लैगये मायाते भिन्न लैगये सो या पति तिहारी न रहैगी जब समाधिते जीव उतरैगो तब पुनि मायामें परि जाउगे ॥ ३ ॥ माझ मैझारया वसै जो जानै जन छैहै सो थीराहो। निर्भय गुरु कि नगरियातहँवांसुख सोवै दास कबीराहो सो मांझ जो है माया काहेते कि जव साहब के बीच में माया को आवरणेही तने के मॅझारिया में जो जन बसै जानैहै कि मायाकै बीचमें बसोहैं औ माया वाको ग्रहण नहीं करिसकै है जैसे जलमें कमल जल नहीं स्पर्श कर सकै हे काहेते साहब को जाने है सहज समाधि लगाये है तेई जन थिर रहै हैं । अथवा साहब औ जीव के मांझ कहे बिचवादक रामनाम तैनै मॅझरिया कहे जामिन है साहबके पास पहुंचाइबे को तौने रामनाम में जो कोई बसै जानहै कि मकार रूप मैंह रकाररूप साहब है मैं सदाको दास हैं औ रामनाप सर्वत्र पूर्ण है। ऐसा जो कोई जानै सो थिर रहै है तामें प्रमाण गोसाई की चौपाई ॥* अगुण सगुण बिच नाम सुसाखी । उभय प्रबोधक चतुर दुभाखी ॥ फिरि प्रमाण श्लोक ॥ “रकारश्शेषलोकश्च अकारोमर्यसंभवः । मकारश्शून्यलोकश्च त्रयोलोकानिरामयाः ।। तामें प्रमाण कबीर जीका पद ॥ क्या नांगे क्या बांधे चाम जो नहिं चीन्है आतम राम ॥ नांगे फिरै योग जो होई । बनको मृगा मुकुअति गो कोई ॥ मूड मुड़ाये जो सिधि होई । मूड़ी भेड़ि मुक्ति क्यों न होई ॥ बिंद राखेजो खेलहि भाई । खसरे कौन परम गति पाई ॥ पढ़े गुने उपनै हंकारा । अधधर बुड़े वार न पारा ॥ कहै कबीर सुनोरे भाई । राम नाम बिन किन सिधि पाई ॥ औ थिर हैकै गुरु कहे सबते श्रेष्ठ श्री रामच द्रके नगर कहे साकेतमें कबीर जे जीव ते उनके दासनै तहां सुखसों सो वै हैं क्हा और देवके उपासना वारे अहं ब्रह्मास्मिवारे जैहैं ते नहीं जाइ सकैहैं वे मायाहीमें रहे अवै हैं ॥ ४ ॥ इति सातवां कहरा समाप्त ।