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(४५८) बीजक कबीरदास । पथिका पंथ बुझि नहिं लीन्हो मूढ़हि मूढ़ गवाँराहो । घाट छोड़ि कस औघट रेंगहु कैसेंकै लगिह। पाराहो ॥६॥ साहब जे श्रीरामचन्द्र तिनके पथके चलनवारे जे पंथी संतजन निनसों तौ पंथ बुझि न लीन्हेउ मूढ़ ने गुरुवा लोग तिनकी बाणीमें परिकै मूढ़ द्वैगये। गवांर वैगयो सो साहबके पहुँचबे को जो घाट ताका छोड़ि औघट जो माया ब्रह्म तामें चलौहौ सो कैसे कै पार लागौगे ॥ ६ ॥ जतइतके घन हेरिन ललइच कोदइतके मन दोराहो ।। दुइ चक्री जिन दरन पसारेहु त पैहड्डु ठिक ठोराहो ॥७॥ । जत इतके कहे जिनके जता चलै है सो जतइत कहावै है सो धोखा ब्रह्म है जो सबको दुरि डारै है सबको मिथ्यै मानै है तहां ललइच जे लालची हैं। ते धन जो मुक्ति ताको हेरिनि सो उहौं न पाइन तव कोदइत ने गुरुवालोग जिनके नाना उपासनारूपको दौरा जाय है तिनके इहांगये कि इहां मुक्तिधन मिलैगो सो कबीर जी कहै हैं कि जतइत के तो धनको ठिकानै न लग्यो तौ कोदइत जे भाटीके दुइ चकरी बनाइ दरना पसारै हैं तहां ठीकठेर पैहौ ? अर्थात् न पैहौ साहब को जानोगे तबहीं ठिकान लागैगो ॥ ७ ॥ प्रेम वाण यक सतगुरु दीन्हो गाढ़ो बैंचि कमाना हो । दास कबीर कियो या कहरा पहरा माहिं समाना हो ॥८॥ श्री कबीरजी के हैहैं कि हे जीवौ ! तुम यामें पार न जाउगे जब ऐसो करौ तब पारै जाउगे। प्रेमको तो वाण करु औ सतगुरु जो ज्ञान दीन्हो है ताको कमान करि नाद बैंचि साहबरूप जो निशान हैं तामें प्रेमबाण मारु अर्थात् प्रेम लगाउ । हे साहव को सदाको दास ! कायाकेबीर जीव या कहरा में संसार को कहर है सो कहा किया है, महरा माहिं समाना कहे जे साहब के महरमी हैं। तेहीमें समाय अर्थात् उनहींको सत्संग करु । कहू गाढ़ो खैचि कमाना यही पाठ है।अथवा हे कबीर ! कायाके बीर जीव मन माया ब्रह्मके दास हैं यहि संसार हैं