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(४५४) बीजक कबीरदास । गुरु भो ढील गोन भो लचपच कहा न मानहु मोरा हो । ताजी तुरकी कबहूँ न साजेहु चढे न काठके घोराहो ॥१३॥ | जो गुरुवा लोग तुमको उपदेश किये ते गुरु ढील द्वे गये काहेते कि, जौन जौन उपासना की गोन तुम्हारे ऊपर लादि दियो तेते देवता लचपच वैगयें कहे उनके छुड़ायेते ना छूटे संसारमें परेजाय। देवता के फुरते न उत फुर होइहै। नइत; जब देवतै न फुरे तब गुरुवा ढील परिगयो । सो कबीरजी कहै हैं कि, जो मैं कहत रह्यो सो तुम ना मान्यो कि, रकार मकार जपौ याहीते छूटौगे ताजी तुरकी जो रकार मकार ताको कबहूँ न साज्यो कहे कबहूँ राम नाम ना लियो जो साहव पास लैजाय । काठको घोरा जो है मन जड़ तामें चढ्यो से कृर्दिकै संसार गाड़में डारि दियो जो ताजी तुरकी रामनाम तामें चढ़त्यो तौ तुमको कूदिकै साहब के पास पहुंचावतो ॥ १३ ॥ ताल झांझ भल बाजत आवै हरा सब कोई ना हो । जेहि सँग दुलहा ब्याहन आये तेहि सँग दुलहनिराचै हो १४ गुरुवा लोगनकी ओठ झांझ है औ जीभ ताल देइहै वही ब्रह्मही में ताल देईहै कहे नाना बाणी करिकै नाना मतन करिकै वही ब्रह्ममें चुवावै हैं । अथवा नाको जौन उपासना बतावै है ताको तौन इष्ट देवता है ताहीको ब्रह्म है हैं ताहीको सब कुछ है हैं, उहै तालका मान देइहैं अर्थात् सब शास्त्रको अर्थ वाहीमें पर्यावसानकरै हैं । और गुरुवनमें लगिकै सुखबाचक जौ कतै न हरा गया कहे परम पुरुष श्रीरामचंद्र को भूले गये । संसार में सब जीव दुखया वै नाचन लगे । कोई रजोगुणी उपासनामें चित भये, कोई तमोगुणी उपासनामें रावत भये, कोई सतोगुणा उपासना में रावत भये । जहि रंग दुलहा जे उपासना वारे जीव ब्याहन आये कहे गुरुवा लग जौन रंगमें लगायो तेहि रंगमें दुलहिन बुद्धि रचत भई ॥ १४ ॥ नौका अक्षत खेवै नहिं जान्यो कैसेहु लागतीरा हो । कहै कबीर राम रस माते जोलहा दास कबीरा हो ॥१६॥