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विप्रमतीसी । (४४३) ब्रह्मईके जानेते ब्राह्मणकहावै है से ब्रह्म को तो न जान्यो यज्ञादिकनके पति ग्रह घरमें लैअवै हैं आदिते दान आयो ॥ २ ॥ जौन उत्पत्ति किया है ताको | तो जानतई नहीं हैं कर्मकाण्डके भरम नाना प्रकारके बैठिकै बखानै हैं ॥ ३ ॥ सों हे दूना कहे दुःखग्रहण में अमावस में सायर कह समुद्रादिक तीर्थन में जैसे स्वाती के जलको पपीहा दैरै है ऐसे तुम्हीं ग्रहण अमावसमें समुद्रादिक तीर्थन में दान लेन को ताके रही है। परन्तु आशा नहीं पूनै है ॥ ४ ॥ प्रेत कर्म सुख अंतर बासा । आहुति सहित होम की आसा कुल उत्तम कुल माहँ कहावें।फिरि फिरि मध्यम कर्म करावें | मुखते प्रेत कर्म करावे हैं कि, ऐसो पिंडदान करो त प्रेतत्व छुटिजाइ । औ अंतःकरणमें या आशा बसै है कि, जो या होमकरै तौ हम दक्षिणा पावें ॥ ५ ॥ ॐ ब्राह्मण तो बड़े उत्तमकुछ कहावै हैं कि, हमबड़े कुलके हैं परंतु फिरिफिरि कहे बारबार मध्यम कहे नरक जायवाके कर्मकरवै हैं ॥ ६ ॥ कर्म अशुचिउच्छिष्टै रवाहीमति भरिष्ट यमलोकहि जाहीं सुतं दारा मिलि जूठो खाहीं।हरिभगतनकी छूति कराही ८ न्हाय खोरि उत्तम है आवें । विष्णु भक्त देखे दुख पावें ॥९॥ | नाना प्रकारके अपवनकर्म कैकै भैरव दुलहा देवादिकनको उच्छिष्टखाय हैं. सो मतिभ्रष्टवैकै यमलोकहि जाइहैं ॥ ७॥ तौने प्रेतनको जूठ सुत दाराकहे पुत्र स्त्री त्यहि समेत सब मिलि खाइहैं औ हरिभक्तन की छूति मानै हैं ॥ ८ ॥ औ नहीं य खोरि कै आपने जान पवित्रकै आवें औ जिनके दर्शनते पवित्र होयहैं ऐसे बिष्णुभक्त तिनको देखिकै दुःखपावै हैं। ई बड़े तिल दिये शङ्खचक्र दीन्हे कहां रहे उनको मुख देखेंगे तो पापळगै है या कहै हैं ॥ ९ ॥ स्वारथलागि रहे वे आढ़ा । नाम लेत जस पावक डाढ़ा१० राम कृष्णकीछोड़नि आसापट्टि गुणिभे किरतिमके दासा | अपने स्त्री पुत्र यहीके स्वारथ में वे अर्थ आढ़ति लगायरहे हैं जिनके अंश हैं। ऐसे जे श्रीरामचन्द्र तिनकै नामलेतमें मानों जीभ पावकमें जरी जाइहै ॥१०॥