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॥ सत्पुरुषाय नमः ॥ अथ विप्रमतीसी।


सुनहु सवन मिलि विप्रमतीसी।हरि विनु बूड़ीनावभरीसी ब्राह्मण वैकै ब्रह्म न जानैं । घरमें यज्ञ प्रतिग्रह आनें ॥२॥ जे सिरजा तेहि नहिं पहिचानें।कर्म भर्म लै वैठि वखानैं ३॥ ग्रहण अमावस सायर पूजास्वातीके पात परडु जनिदूजा ४ प्रेत कर्म सुख अंतर वासा । आहुति सहितहोमकीआसाद कुलू उत्तम कुलू माहँकहावैफिरिफिार मध्यमकर्मकरावें ६ कर्म अशुचि उच्छिष्टै खाहीं।मति भारष्ट्यमलोकहिजाही सुतदारा मिलि जूठो खाहीं। हरिभगतनकी छूतिकराहीं८ न्हायखोरि उत्तम वै आवै।विष्णुभक्त देखे दुख पावै॥९॥ स्वारथलागिरहे वे आढ़ा । नामलेत जस पावक डाढ़ा१० रामकृष्णकीछोड़ि निआसा।पढ़िगुणिभयेकृत्तिमकेदासा११ कर्मकरहिं कर्महिको धावै।जो पूछे तेहि कर्मदृढ़ावें ॥१२॥ निष्कर्मीकै निन्दा कीजै । करैकर्मताही चितदीजै ॥१३॥ असभगती भगवतकी लावै।हरिणाकुशको पन्थचलावें१४ देखहुकुमतिनरकपरगासाविनुलखिअंतरकिरतिमदासा१५ जाके पूजे पाप न ऊडै । नाम सुमिरितेभवमेंबूड़े ॥१६॥