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(४२२) बीजक कबीरदास । ङा निरखत निशि दिन जाई।निरखत नैन रहा रटलाई ॥ निमिष एक लौं निरखै पावै । ताहि निमिषमें नैन छिपावै॥ चचा चित्ररचो बहु भारी।चित्रहि छोड़ि चेतु चित्रकारी ॥ जिन यह चित्र विचित्र उखेलाचित्र छोड़ि तू चेतु चितेला६ छछा आहि छत्र पति पासाछिकिकै रहसि मेटि सव आसा।। मैं तोही छिन छिनसमुझायाखसमछोड़िकसआपबंधाया७ जजाया तन जीयत जारो।यौवन जारि युक्ति जो पारो ॥ जो कुछ जानिजानि पर जरै ।घटहि ज्योति उजियारी करै८ झझा अरुझि सरुझि कित जानाहीठत ढूँढ़त जाहि पराना॥ कोटि सुमेरु ढूंढ़ि फिरि आवै।जो गढ़ गढ़ा गढ़हि सो आवै९ अजा निरखत नगर सनेहू । करु आपन निरवारु सँदेहू ॥ नाहं देखी नाहं आपभजाऊजहां नहीं तहँ तन मनलाऊ१० टटा विकट वात मन माहीं । खोलि कपाट महलमें जाहीं ॥ रहै लटपटे जुटि तेहि माहीं।होहिं अटल ते कतहुँनजाहीं११ ठठा ठौर दूर ठग नीरे। नितके निठुर कीन मन धीरे ॥ जेहिठगठगसबलोगसयानासो ठगचीन्हिठौरपहिचाना१२ डड़ा डर कीन्हे डर होई । डरहीमें डर राखु समोई ॥ जोडर डरै डरै फिरि आवै।डरहीमें पुनि डरहि समावे॥१३॥ ढढा ढूंढ़तई कत जाना । ढीगर ढोलहि जाइ लोभाना ॥ जहां नहीं तहँ सब कछु जानी।जहां नहीतहँले पहिचानी१४ पणा दूर बसौ रे गाऊं । रे णणा टूटै तेरा नाऊ॥ मुये यते जियजाही घनामुये यतदिक केतिक गना॥१६॥