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शब्द । (४१५) अथ एकसै ग्यारह शब्द ॥ १११ ॥ है कोई पंडित गुरुज्ञानी उलट वेदको बूझै । पानीमें पावक जरै अंधे आँखी झै ।। १ ॥ गयात नाहरको रसायो हरिन खायो चीता। कागद लारै फादिकै बटेर बजे जीता ॥ २॥ मूसा हो मंजरै खायो स्यारै खायो श्वाना । आदिके उपदेश जन तासु बेलै बाना ॥ ३ ॥ एकै तो दादुर सो खायो पांचौ जे भूवेगा। कहै कबीर कारकै हैं दोङ यक संग ॥ ४ ॥ हैं कोई जुरु ज्ञानी पंडित उलट वेको बुझे । पानीमें पावक जरे अंधे आँखी सूझै ॥ १ ॥ ऐसो गुरुज्ञानी पंडित कोई नहीं है जो उलटिकै वेदको अर्थ बुझै अर्थात् । गायत्रीते वेद भयो है प्रणवते गायत्री भई है प्रणव राम नामते उत्पन्न भयो है सो कहैं पानी जो है बानी तामें पावक बरैहै कहे ब्रह्माग्नि बीज रामनामहै से सर्वत्र पूर्ण है सो अंधेके आंखीमें कैसे सूझै उलंटिकै वेदको बुझै तौ जानै कि सबको मूल रामनामई है ।। १ ।। गैया तो नाहर को खायो हरिना खायो चीता । कागा लग फादिके वटेरन वाज जीता ॥२॥ गैया जो गायत्री तौनेके नाना अर्थ करि कहीं सूर्य में लगावैहैं कहीं ब्रह्ममें लगवै हैं सोई अर्थ जो गैया सो सांच गायत्रीको तात्पर्य साहब तिनको ज्ञान जो नाहर ताका खायलियो । हरिनाजो अद्वैत ज्ञान कि हरिनहीं है प्रणवको अर्थकियो कि जीव नहीं है एक ब्रह्मही है सो मैं हौं या जो हारना सो साहबको