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{ ४१४) बीजक कबीरदास । अथ एकसै दश शब्द ॥ ११० ।। | अपनो कर्म न मेटो जाई । कर्म लिखा मिटे धौं कैसे जो युग कोटि सिराई।। १॥ गुरु वशिष्ठ मिलि लगन शोधाई सूर्य मंत्र यक दीन्हा। जो सीता रघुनाथ विही पल यक संच न छीन्हा २ नारद मुनिको बदन छपायो कीन्हो कपिसों रूपा।। शिशुपालहुके धुजा उघारे आपुन बौध स्वरूपा ॥३॥ तील लोकके करता कहिये वालि बध्यो बरियाई। एक समय ऐसी वनि आई उन अवसर पाई॥४॥ पार्वती को बांझ न कहिये ईश न कहिय भिखारी ।। कह कवीर करता की बातें कर्मकि बात निनारी ॥६॥ श्रीमन्नारायण वैकुण्ठते केतन्यो अवतार लियो तेऊ कर्मकी मर्यादा राखिबई किये सो जे साहब उत्पत्ति पालन संहार केरै हैं तेतो कमेकी मर्यादा राखिबोई कियो और की कहा गति है सो विना परमपुरुषपर श्रीरामचन्द्र लामलिये कर्मकीगतिकाहूकी मेटा नहीं मेटि जाइहै श्री रामनामते कर्मको गति मिटि नाइहै साहब मेटि दइहै तामें दोऊ प्रमाण ।। **राम नाम मणि बिषय ब्यालके। मेटत कठिन कुअंक भालके ॥ १॥ सर्व धर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं ब्रज अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि माशुच'इतिगीतायां॥“सकृदेवप्रपन्नायतवास्मीतिच याचते।अभयं सर्वभूतेभ्यो ददाम्येतद्रतं मम ॥इति रामायणे॥ॐ कबीरजी ऊके प्रमाण ॥ * पाहले बुरा कमाइकै, बांधी विषकै मोट । कोटि कर्म मिट पृलकमें, अवै हरिकी ओट । और और पद्को अर्थ स्पष्टै है ॥ १-६ ।। इति एकसै दश शब्द समाप्त ।