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| शब्द। (४०७) भाव कारकै तौ भुवंगहैं जाको सांप धरै है ताको बिष चदै है मरि जायेहै। तैसे जो इनको संग कैरै हैं ताहूके इनके मतको बिष चढ़ि जाईंहै इनके मतनमें चल्यो सो मारो परयो । अरु वे बड़े बिविचारी होत हैं शास्त्रके मतते जो कर्म हैं ताको छोड़ाइही देइहैं अरु परम पुरुष पर श्री रामचन्द्र को जानतेई नहीं हैं। जाते उद्धार हुँनाइ सो कर्मकांडी तो भला कछु स्वर्गको सुख पाइकै संसारमें परै हैं ये सीधे नरकही को चले जाइहैं सो इनकी सुरति सचान द्वै रही है जैसे सचान्द खोजत फिरै है कि जे कौन्यो जवको पांऊ तौ धरिले अरु उनकी मति जो है दुर्मति सो मंजारी है रही है जैसे मंजारी खोजत फिरै है कि जो काहू मूसका पाऊ तौ धरिले तैसे येऊ खोजत बागै हैं कि काहूको पावै तौ चेला करिले औ धन लेलेईं जैसे आप नरक में जाय हैं तैसे चेलौको नरकमें डारैहैं ।। ३ ।। अतितौ विरोधीदेखोअतिरेदेवाना।छौदर्शनदेखोभेषलपटना कहे कबीर सुत्र नरबंदा । डाइनि डिभ परे सव फंदा ॥६॥ येागा जङ्गम सेवरा संन्यासी दरवेश ब्राह्मण तिनसों अति विरोध करे हैं। अरु अपने मतमें अति दिवाने है रहे हैं अर्थात् वही पाखंड मतका सबूते अधिक मानै हैं सो याही भांति छइड दर्शनमें देखे हैं कि भेष सबमें लपटान्यो है कुछ सार पदार्थ नहीं जाने हैं भेष बनाइ लियो योगी जङ्गम सेवरादिक कहावन लगे ।४।।श्री कबीरजी कहै हैं कि हे नर ! तेंतो परम पुरुष पर श्री रामचन्द्रको बंदाहै सो उनको तो ये षट् दर्शनवारे जाने नहीं हैं आपने अपने मतमें डिंभ किये हैं कि, हमारई मत ठीक है और मत झूठेहैं ।। ५ ।।। इति एकसै चार शब्द समाप्त ।। अथ एक पाँच शब्द ॥१०५ ।। यह भ्रम भूत सकल जग खाया।जिनजिनपूजातिनजहड़ाया अंड न पिंड प्रा नाहिं देहा । काटि काटि जियकेतिकयेहार वकरी झुर्गी कीन्हो छहा । अशिल जन्म उन्ह अवसरलेहा ३ कहै कबीर सुनो नर लोई । भुतवा के पूजे भुतवै होई ॥ ४ ॥ 1 । ।