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(४०४) बीजक कबीरदास । क्या काशी क्या ऊषर मगहर हृदुय राम बस भो । जो काशी तन तजै कवीरा रामै कौन निहोरा ॥ ॥ लोगो तुमहीं मतिके भीरा ।। ज्यों पानी पानीमें मिलिगो त्यों डुरि मिल्यहु कबीरा॥१॥ हेलोगो! तुम बड़े मतिके भीरहौ कहे डराकुलहौ काहे ते जमैं एतौ उपदेश पशुको करत्यौं तौ पशुहू को ज्ञान छैनाते तुम पशुहूते अधिकही जैसे पानीमें पानी मिलि जाइहै ऐसे कबीरजी कहे हैं कि तुमहू दुरिकै मिले; कहे हंसस्वरूपमें मात्र होउ है साहबके पास जाउ जो कहो पानीमें पानी मिले एकही लै जाइहै;तछ एक नहीं है जाइहै काहेते कि लोटा भरे जलमें चुरुवा भरि जल नाइ देईं तों बाढ़ि आवै है जो वही जल होतो ते बढ़ते कैसे जो कहा समुद्र में तो नहीं बड़े तैः समुदौमें गंगादिक नदी जुदीही रहती हैं देखबेको मिली हैं परन्तु उनको पारिख मेघ जानै हैं वहांते मीठे जल लैकै वर्षे हैं पुनि जब श्रीरामचन्द्र समुद्रपर कोपे तब समुद्र आयो है सब नदी अमरछत्र लीन्हे जुदी जुदी आई हैं औ अवहूं जहाजवारे जे जाने हैं ते मीठा जल समुदके पाई जाइहैं सों इकबीरौ ! कायाके बीर जीव तुमहूं हंसस्वरूपमें स्थित है साहब के लोकमें प्रवेश कर साहबको मिलोनाइ ॥ १ ॥ ज्यों मैथिलको सच्चा वासात्यहि मरण होय मगहर पास मगहर मरे मरण नहिं पावै । अतै मरे तो राम लजावे ॥३॥ मगहर मरै सो गदह होई । भल परतीति रामसों खाई॥४॥ जो श्रीरामचन्द्र को जानै तौ जैसे मैथिल कहे मिथिलापुर में मेरे मुक्ति होइहै तैसे मगहरमें मरे मुक्ति होई है ॥ २ ॥ जो मगहरमें मैरै तो मरणनहीं पावै है यह सबकोई कहेहैं कि मगहरमें मरे मुक्ति नहीं होइहै अरुजो अंते मरै तो श्रीरघुनाथजीको लजावै कि तीर्थकी ओट लैंकै मरया ॥ ३ ॥ सो जाकी श्रीरामचदमें परतीति नहीं होयहै सो मगहरमें परे दहै होइहै ।। ४ ।।