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(३९० ) बीजक कबीरदास । बूझैहै कि हम यहि मनते भिन्नहैं । निर्जीव जो मन है ताके आगे सजीव जो है। आत्मा ताको राखि देइहै कह मिलाइ देइहै आंधरनको यह नहीं मूझि परे है कि, चित् जीवको जड़नमें मिलाइ जड़ काहे कैरैहै औआत्मा देहको एकही मानै है॥ २ ॥ ताज अमृत विष काहेको अँचवै गांठी बांधो खोटा। चोरनको दिय पाट सिंहासन शाहुको कीन्हो ओटा ॥३॥ | अमृत जो है आपने आत्माको स्वरूप ताको छोड़के विष जो है मन तामें लगिकै नाना पदथिनमें लागियो तो है ताको काहेते अँचवे हैं कि गांठीमें खोट जो मनहै ताको बांधे हैं सो काहैं सो काहे बांधे हैं मनते भिन्ननहीं है जाइहैं। आत्मा के स्वरूपको भुलाइकै मन में लगाइ देनवारे औ साहब को भुलाइ दैनवारे औ संसारमें डाार देनवारे ऐसे ने गुरुवा लोगहैं तिनको पाट सिंहा सन देइ है कहे उनका गुरु करैहै औ शाहु जे साधु जनहैं मनते छोड़ाय देन• वारे जे साहबको बताइ देईं आत्माको स्वरूप जनाइकै तिनको ओट कीन्हे है कहे उनको दर्शनई नहीं लेइ है ॥ ३ ॥ कह कवीर झूठे मिलि झूठा ठगही ठग व्यवहारा । तीनलोकं भरि प्रारं रहोहै नाहीं है पतियारा ॥ ४ ॥ सो कबीरजी कहैहैं कि ऐसे में लोगहैं ते झूठा जो मनको अनुभव ब्रह्महैं तामें मिलिकै झूटे झै रहै हैं ठगै ठगको ब्यवहार है रह्यो है से तीन लोक में वही भरिपूरि रह्यो है सो पतिआइबे लायक नहीं है जो ठगमें लगैहै सो ठगही है जाइँहै जो कहो तीनलोकमें तौ साधुहूहैं पतिआइबे लायके कोई न रह्यो यह कैसे तो कबीर जी कहै हैं कि साधुजन तैनलोकके बाहरईहैं बेतानलोकके भीतर नहीं हैं काहेते कि तीन लोक मनको पसाराहै अरु वे मनते भिन्न हैं ॥ ४ ॥ इति तिरानवे शब्द समाप्त ।
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