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शब्द ।। | ( ३८३) गोरख पवन रखै नहिं जाना योगयुक्ति अनुमाना । ऋद्धि सिद्धि संयम बहुतेरा पारब्रह्म नहिं जाना ॥ ३॥ वशिष्ठ शिष्ठ विद्या संपूरण राम ऐसे शिष शाखा । जाहि रामको करता कहिये तिनहुंक काल न रावा ॥४॥ हिन्दूकहै हमैं लै जरवै तुरुककहै मोर पीर । दूनों आय दीनमों झगरें देखें हंसकबीर ॥५॥ | आगेके पदमें कहि आये काल श्वासा गहे है सो चेति पांसा दारो कहें विचार विचार कामकरो सोई विचार बतावै है । संत महंत सुमिरौ सोई । जो कालफॉससों वाचा होई॥१॥ | साहब कहै हैं कि, हे संतमहंतौ ! ताको सुमिरण करो जो कालफांसते बचो होइ ॥ १ ॥ दत्तात्रेय मर्म नाहिं जाना मिथ्या स्वाद सुलाना । सलिला मथिकै घृतको काढ्यो ताहि समाधि समाना॥२॥ | जो कहो दत्तात्रेय आपने को ब्रह्म मानिकै ब्रह्मही द्वैगये तेतो वाके मर्मको कहे ज्ञानको जान्यो है सो प्रथम दत्तात्रेयऊ नहीं जान्यो काहेते कि वहतो धोखा मिथ्या है सो तेऊ मिथ्यास्वादमें भुलाइ गये यह न बिचारयो कि, जौन बिचार करत करत रहिजाय है सो मेरो स्वरूप परम पुरुष पर श्रीराम चन्द्रको दास है जब वे बिग्रह देइ हैं आपनो तब उनके पास जाई है। सो यह तो न जान्यो पानी को मथिकै घृत कढ्यो वहीं धोखा ब्रह्मकी समाधिमें समाइ रह्यो सो कहूं पानिहूते घृत निकसै है उनके हाथ धोखई लग्यो ॥ २ ॥ गोरख पवन रखै नहिं जाना योगयुक्ति अनुमाना। ऋद्धि सिद्धि संयम बहुतेरा पारब्रह्म नहिं जाना ॥३॥