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शब्द। ( ३७९) हैकै ता ज्योतिरूपी डोरीमें गुरुनो युगुति बतावै है तौनी युगुति ते सुरतिके साथ जब जीवको साजि दियो तब छइउ चक्र को आपही वह ज्योति बेधै है। सो वह ज्योतिके भीतर वैकै षट्चक्र बेधिकै सहस्रदल कमलको बेध्यो तब उहां उजियारी देख्यो जाइ ब्रह्म प्रकाशकी तब काम क्रोध लोभ मोह मद मत्सर | ई जे सावज हैं तिनको हांकि दीन्ह्यो कहे दुरिकै दीन्ह्यो ॥ ३ ॥ गगन मध्य रोक्यो सो द्वारा जहाँ दिवस नहिं राती । दास कबीर जाय सो पहुँच्यो सव विछुरे सँग सँघाती जहां सुरति कमलमें परमगुरु रकार मकार कहै हैं औ दशौ दार बंद हैं तहां न दिवसहै न रातिहै वह प्रकाशरूप ब्रह्मई है । सो उहां परम गुरुते रामनाम सुनिकै वही नामते दशवों द्वार खोलकै वंही डोरी ढुकै दासजो कबीर जीव है सो परम पुरुष पर श्रीरामचन्द्र के लोकको पहुंचे जाइहैं तब संगके संघाती जे हैं चारिउ शरीर अरु प्रकाशरूप ब्रह्म जो है कैवल्य शरीर ताहूको बिछोह वैजाई है।अथवा कबीरजी कहै हैं किं, मैं जो हौं साहबको दास सो अनिवैचनीय पार्षद शरीर जो है हंसशरीर ताको पाइकै वोही डोरी ब्रह्मज्योति हैं। कै अनिर्वचनीय जो है साहबको धाम तहाँ पहुँच्योजाई। तहां हे जीवो ! तुमहूं पहुँचौ यह भ्रममें काहे परेहौ तुम तौ साहबके आनंदकन्द धामके हौ साहबके दास ताते रहित औ जौन तुम मानौ हौ सो तुम नहीं हो ॥ ४ ॥ इति सत्तासीवाँ शब्द समाप्त । अथ अट्टासीवां शब्द ॥ ८८।। | गुरुमुख । सावज न होइ भाई सावज न होइ। वाकी मांसु भखै सव कोई ॥ १॥ सावज एक सकल संसारा अबिगति वाकी बाता । | पेट फारि जो देखियेरे भाई आहि करेज न आता ॥२॥