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शब्द। ( ३७३) गोरख ऐसो दत्त दिगम्बर नामदेव जयदेव दासा । उनकी खवर कहत नहिं कोई कहां किये वासा ॥ ६ ॥ चौपर खेल होत घट भीतर जन्मके पांसा ढारा।। दमदमकी कोइ खवर न जानै करि न सकै निरवारा॥७॥ - चारि दिशा महिमंड रचोहै रूम साम विच दिल्ली। ता ऊपर कछु अजव तमाशा मारैहैं यम किल्ली ॥ ८ ॥ सव अवतार जासु महिमंडल अनत खड़ी कर जोरे।। अद्भुत अगम अथाह रचोहे ई सवशोभा तोरे ॥ ९ ॥ सकल कबीरा बोलै वीरा अजहूँ हो डुशियारा ।। कह कबीर गुरु सिकिली दर्पण हरदम करो पुकारा॥१०॥ कविरा तेरो घर कँदलामें या जग रहत भुलाना । गुरुकी कही करत नहिं कोई अमहल महल देवाना॥१॥ कबीरजी कहैहैं कि हे कबिरा! कायाके बार जीव तेरो घर तो कॅदलामें है। कहे आनंदको कंद कहे सारांश जो है साहबको घाम तहां है तेरो घर या जगदमें नहीं है हैं नाहक भुलान रहै है यहां गुरु कहे सबते श्रेष्ठ जे परमपुरुष पर श्रीरामचन्द्र कहै हैं कि अबहूं जो मोको जानो तो मैं कालते छोड़ाइ छेउँ तिनका कह्यो कोई न मानिकै अरु आनंदको कंद उनको घाम छोड़िकै अमहल महल कहे जो कछु वस्तु नहीं है ऐसो जो है धोखा ब्रह्म तामें अरु कोई माया के प्रपंच देवाना है रह्यो है ॥ १ ॥ सकल ब्रह्ममें हंस कबीरा कागन चोंच पसारा। मन मत कर्म धरै सवदेही नाद विन्दु बिस्तारा ॥२॥ हैं हंस! कबीर कायाके बर जीवते साहबको ब्रह्मही कहै हैं तिनको कहियो कंगन कैसी चोंचको पसारिबो है जैसे कागनके आगे जो दूध भात औ