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शब्द। | ( ३६१) जवतै उहां अहं ब्रह्म वुद्धि करै है, तवहीं जगरूप तारा उत्पात्त होइहै तौनेही जगत् में एक गुरु होइ सो चेतावैहै अरु एक शिष्य होइहै सो चेतकरैहै ॥२॥ जेहि खोजै सो उहवां नाही। सोतो आहि अमर पद माहीं॥ कह कवीर पद बुझे सोई । मुख हृदया जाके यक होई ? । सो यहि आपने स्वरुपको ते खाने है कि मैं आपने स्वरूपको नानिकै मुक्त हैनाउँ सो उहां वागुवनको ज्ञानमें नहीं है औ न वह लोक प्रकाशमें है कहते कि जे जे देवत्वनमें वे लगवैहैं तेई अमर नहीं हैं ता तोको कहां मुक्ति करेंगे अरु महा प्रलयमें जब लोक प्रकाशमें लीन होइहै तब उहते उत्पत्ति होइहै। तेहिते उहीं गये अमर नहीं होई तेहिते यह आयो कि तैतो अमर नहीं होइहै तेहिते यह आयो कि तेंतो अमर पदमें है साहबका अंशहै साहबको जानिले तौ अमर हैनाइ ॥ ३ ॥ श्रीकवारजी कहै हैं कि यह अमरपद अपनो स्वरूप कोई बिरला बूझैहै कौन जाके सम अधिक नहीं है ऐसो जो है एक रामनाम सो जाके मुखहृदय में होइहै सोई बुझैहै ।। ४ ।। इति उन्नासीवां शब्द समाप्त । अथ अस्सीवां शव्द ॥ ८० ॥ वन्दे करिले आप निवेरा । आपु जियत लखु आप ठवर करु मुये कहां घर तेरा ॥१॥ यहि अवसर नहिं चेतौ प्राणी अन्त कोई नहिं तेरा।। कहै कवीर सुनो हा संतो कठिन काल को घेरा ॥२॥ वन्दे करिले आप निवेरा। आप जियत लखु आप ठवर करु मुये कहां घर तेरा ॥१॥ यहि अवसर नहिं चेतौ प्राणी अंत कोई नहिं तेरा ।। कहै कबीर सुनो हो संत कठिन काल को घेरा ॥२॥