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(३९८) बीजक कबीरदास । अथ सतहत्तरवां शब्द ॥ ७७॥ आपन आश किये बहु तेरा। काहु न मर्म पाव हरि केरा॥ इन्द्री कहां करै विश्राम । सो कहँ गये जो कहते राम ॥२॥ सो कहँ गये होत अज्ञानाहोय मृतक वहि पदहि समान३॥ रामानंद राम रस छाके। कह कबीर हम कहि कहि थाके४॥ आपन आश किये वहुतेरा। काहु न मर्म पाव हरि केरा॥ आपने स्वरुपके चन्हिवे की बहुतेरा कहे बहुत आशंकिये कि हमारों आत्मै सबको मालिकह यहींके जानेते हम मुक्त है जाइँगे परन्तु मुक्त न भये अरु हरि ने पर उप पर श्रीरामचन्द्र सबके कलेश हरनवारे हैं तिनको मर्म न पायो अर्थ उनको कोई न चीन्ह्यो ॥ १ ॥ इंद्री कहाँकरें विश्राम । सो काँगये जो कहते राम॥२॥ अरु यह कोई नहीं विचार केरै है कि इन्द्री कहा विश्राम करै है काहेते कि इन्द्रीके ने देवताहैं, तिते समेत इन्द्रीती मनते चैतन्य हैं औ मन जीवात्मा ते चैतन्यहै औ जीवात्मा परमपुरुषपर श्रीरामचंद्र के प्रकाशते चैतन्य है से में आपने स्वरूपके विचार करै हैं कि महीं रामह ते वे रामभर कहांगये अर्थात् नहीं गये ब्रझमें समान रहे अरु एक एकते चैतन्यहै तामें श्रीगोसाई तुलसीदास को प्रमाण ।। ** बिषय करन सुर जीव समेता । सकल एकतै एक सचेता ॥ सबकर परम प्रकाशक जोई। राम अनादि अवधपति सोई॥ जगत प्रकाश प्रकाशक रामू । मायाधीश ज्ञान गुणधामू ॥ २ ॥ सो काँगये होत अज्ञान।होय मृतक यहि पदहि समान॥३॥ रामानंद राम रसछाके। कह कबीर हम कहि कहि थाके॥४॥ | जीव ब्रह्ममें समान रह्यो शुद्ध रह्यो जब मनकी उत्पत्ति भई अज्ञान भयो सों कहांगयो अर्थात् तब मृतक बँकै आपने स्वरूपको भुलायकै यहि पदहि कहे यहि | . संसारमें समान॥ ३॥श्रीकबीरजी कहैहैं कि हम चारों युगमें कहि कहि थकिगये