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( ३५४) बीजक कबीरदास । जौन तू धोखाब्रह्म सर्वत्र पूर्ण मानै है सो तेरी यह पेखनी नटवत बाजी देखनी है अर्थात् झूठेहै बाजीगरकी बानी है अर्थात् सांच असाच देखावै असाच सांच देखावै सो कबीरजी कैसे हैं कि हे संती ! सुनौ उनको राजविराजी हे गई कहे सर्वत्र पूर्ण सत्य जे साहब ते उन को नहीं जानिपरैहैं वही घाखाब्रह्म में लगे हैं असत्यही सर्वत्र देखे हैं मनमाया को राज द्वैरह्यो है साहबको राज्य नहीं है ॥ ६ ।। इति चौहत्तरवां शब्द समाप्त ।। अथ पचहत्तरवां शब्द ॥ ७५ ॥ ऐसो भर्म विरचिन भारी ।। वेद किताव दीन औ दोजख को पुरुषाको नारी ॥ १ ॥ माटीको घट साज बनाया नादे विंदु समाना। वट विनशे क्या नाम धरहुगे अहमक खोज भुलाना॥२॥ एकै हाड़ त्वचा मल लुत्रा रुधिर शूद यक मुद्रा । एक विंदुते सृष्टि रच्योहे को ब्राह्मणको शुद्रा ॥ ३ ॥ रजगुण ब्रह्म तमोगुण शंकर सतोगुणी हरि सोई। कहै कबीर राम रमि रहिया हिन्दू तुरुक न कोई ॥४॥ | ऐसो भर्म विरचिन भारी। वेद किताब दीन औ दोजख को पुरुष को नारी ॥ १ ॥ ऐसो कहे यहितरहते जैसो आगे कहै हैं तैसो चिन्मात्र जीव को बिगारबों भर्मते बहुत भारी है काहेते कि भर्म ते दुबिधा कहिँकै वह सार पदार्थ कों न जान्यो हिन्दू मुसल्मान दोऊ बिगरिगये हिन्दू वेद की राहते नाना मत बनाय लेतभये औ मुसल्मान किताबनकी शरा बैंकै नाना मत दूसरो दीनको खड़ा करत भये हिन्दू नरक स्वर्ग मुसल्मान बिहिश्त दोजख कहतभये जो