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शब्द। ( ३५३) अरु वह ब्रह्मको न कर्म है न धर्म है और न वाके योग युगुती है औ सींगी जो योग लोग वनवैह से वाके नहीं है औ योगी तुम्बा लिये हैं अरु वाके पात्र नहीं है । सो कवीरनी कहे हैं कि, वह ब्रह्म तौ न योग करै न वेत्र वनवै सद्धांत में तो कछू हई नहीं हैं सो हे योगिउ ज्ञानिउ वेप बनाईंकै जो कहौहौ कि हमहीं ब्रह्म तैः मुक्ति कहे ऐश्वर्य काहे मांग है कि हमही जगत् के मालिक औ ब्रह्म नाई; हे गुरु ! हमको यह युगुति वताइ देउ है जो मुक्ति पाठ होइ तौ तुम पहिलेही ते मुक्त बनेरहे गुरुवा लोगनते काहे मुक्ति मांगीही कि जामें हम मुक्त है नाईं सो युगुति बताइ देउ । जो कहो हम आपने भ्रम निवृत्ति , करिबे को मुक्ति को ज्ञान मांगे हैं तौ अरे मूदै। वह ब्रह्मके तो कुछ हई नहीं है वह निलेप। वह ब्रह्म जो तुम होते तो अज्ञानई तुम्हारे कैसे होतो ॥ ३ ॥ तें मोहिं जाना मै तोहिं जाना मैं तोहिं मार्दै समाना । उतपति प्रलय एक नहिं होती तव कह कौनको ध्याना ४ | श्री कबीरजी कहैं कि, है नीव ! ज्ञानजो तें मान लिया है अर्थात् ते उपासना करै हैं कि मैं ईश्वरहीं ईश्वर में समानह ईश्वर माहीं में समान है । तौ उत्पत्ति प्रलय जब कुछु नहीं है तबतो बताउ कौनको ध्यान है अर्थात् काहूको ध्यान नहीं करत रह्यो भाव यह है कि तब जो ब्रह्महोते तौ संसारी काहे हाते ।। ४ ॥ योगिया एक आनि किय ठाढ़ो राम रहो भरिपूरी। औषधि मूल कछुव नहिं वाके राम सजीवन मूरी }} ५॥ सो तेंहीं योगिया मायासवलित ब्रह्मको अनुभव कारकै धोखा ब्रह्महीको साहब मानि उठादकै लीन्हो है । फिर कैसो है ना कुछ औषधिहै ना वाके मूलैहै ताको मानै है परमपुरुष पर श्रीरामचन्द्र सजीवनि मरि सर्वत्र पूर्ण है रहै हैं। ताको नहीं जानैहैं सजीवनि मूरि याते कह्यो औ नाना ईश्वर जीवत्व मिटय देनवारे हैं औ साहब जीवनको नियाय देनवारे हैं अर्थात् रूप देनवारे हैं ॥ ५ ॥ नटवत बाजी पेखनी पैखै बाजीगर की बाजी ।। कहै कबीर सुनोहो संतौ भई सो राजबिराजी॥ ६॥ ३३ ।