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( ३४८) बीजक कबीरदास । अथ शब्द ॥ ७२ ॥ | चलहु का टेढ़ो टेढो टेढो । : दशौ द्वार नरके में बूड़े तू गंधीको बेढो ॥ १ ॥ फूटे नैन हृदय नहिं सूझै मति एकौ नाहं जानी । काम क्रोध तृष्णाके मारे बूड़ मुयेविन पानी ॥२॥ जारे देह भसम वैजाई गाड़े माटी खाई । शूकर श्वान कागके भोजन तनकी यह बड़ाई॥३॥ चेति न देखु मुगुध नर वौरे तूते काल न दूरी । कोटिन यतन करै वहु तेरे तनकी अवस्था धूरी॥४॥ वालूके घरवामें बैठे चेतत नाहिं अयाना । कह कबीर यक राम भजे विन बूड़े बहुत सयाना ॥५॥ चलहुका टेढोटेढोटेढ़ो।दशौ द्वार नरकैमें बूड़ेतू गंधकोषेढ़ो तीन बार टेढो टेढो टेढो जो कह्यो सो ज्ञानकांड कर्मकांड उपासना कांड ये तीनों मार्ग अथवा सतोगुणी रजोगुणी तमोगुणी ये तीनों कर्मते टेढ़े हैं सो ये मार्ग में कहा चलोही दशै दार ने दशै इन्द्री हैं ते नरकहीं में लगी हैं। कहे विषयन ही में लगी सो तेरे बिषयको गन्धि लगी है ताते हैं गन्धी है। सो तोही ऐसे गन्धी को माया बेदिलिये कहे तेरो ज्ञान छोड़ाई लियो । अरु ओ बड़ो पाठ होइ त यह अर्थहै कि तोही ऐसे गंधक जाके दशौदार नरक हीमें बुडेहैं ताको बेड़ो नहीं है जाते संसार सागरः उतारि जाइ अथवा गन्ध जगद ३ है गन्धी शरीर ताकी हैं बेड़ो कहे आधार कहा वैरहेहै टेट्रो टेढो चाल चलकै यहां कहां तेरो पारकिये होइगो संसार सागरते न होइगो बूड़िही जाइगो ॥ १ ॥ फूटे नैन हृदय नहिं सूझ मति एक नाहिं जानी। काम क्रोध ष्णाके मारे बुड़ि मुये बिन पानी ॥२॥